पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२७०

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अर्थ-विचार वही स्त्रीप्रत्यय हिंदी में आकर दूसरे प्रकार के संसर्ग में पड़ने से पुल्लिंग और बड़प्पन का सूचक वन गया। धोती, गौरी, सती, मौसी, डोरी, किवाड़ी, घंटी, मटकी, पोथी आदि का बड़प्पन तथा पुरुपत्य प्रकट करना होता है तो हम कहते हैं-धोता, गौरा, सता, मौसा, (रस्सा, डोरा, किवाड़ा, घंटा, मटका, पोथा । सत्ता, मैसा, डोरा आदि शब्दों में पुरुपत्र की भावना है। कभी कभी प्रकृति का एक अंश उद्योतन के द्वारा प्रत्यय वन जाता है, जैसे पश्चात्' प्रकृति है उससे वना पाश्चात्य; पर पीछे से 'आत्य' ही प्रत्यय बन गया और अब हम पौर्वात्य और दाक्षिणात्य, भी कहने लगे हैं। पाली में तस्स+ अंतिकं मिलकर 'तस्सन्तिक रूप बना करता था पर पीछे सन्तिकं संबंधसूचक प्रत्यय बन गया। इस प्रकार प्रकृति के अंशों में भी द्योतकता आ जाती है । अँगरेजी में डेस्पाटिजम (Despotism) और पेट्रियाटिज्म (Patriotism) आदि शब्दों में 'इज्म' प्रत्यय है पर पीछे से 'टिज्म' ही प्रत्यय बन गया और 'इगो' से इगोटिज्म जैसे शब्द बनने लगे। इसी प्रकार पिआनिस्ट (Pianist) और मैशिनिस्ट (Machinist) आदि शब्दों में 'ईस्ट' प्रत्यय है पर पीछे भी प्रत्यय में या मिला और टुवैकोनिस्ट (Tobacconist) के समान शब्द-रचना होने लगी । संस्कृत में तो ऐसे भी बाहरण मिलते हैं जहाँ पूरी की पूरी प्रकृति ज्योतन के द्वारा प्रत्यय बन गई है जैसे गो-युगच प्रत्यय । गोयुग का अर्थ है गाय अथवा वैल का जोड़ा, पर संसर्ग से उसमें केवल जोड़ा प्रकट करने की शक्ति आ गई। अत: अत्र उप्ट्रगो-युगच (एक जोड़ा ॐ) के समान प्रयोग चलने लगे हैं। इस प्रकार अर्थ के अनुसार रूप वन जाया करते हैं। जब विभक्तियाँ ध्वनि-नियम अथवा अन्य किसी कारण से लुप्त हो जाती हैं तब भी यह आवश्यक नहीं होता कि जनता के मन से भी उनका लोप हो जाच । इसी मनोवृत्ति के कारण प्रायः प्राचीन काल को कुछ अप्रयुक्त विभक्तियाँ भी भाषा में मिल जाया करती हैं । इस मनोवृत्ति फा०१६