पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३२०

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भारतीय लिपियों का विकान समय या उसके कुछ ही पश्चात् की कृति है, लेख अथवा लेखन कला बौद्धकाल के उल्लेख की प्रशंसा की गई है। जातक ग्रंथों में पोत्थक. पुस्तक का तथा राजकीय-पत्रों, व्यक्तिात-पत्रों, ऋण-पत्रों आदि का उल्लेख किया गया है। पाणिनि के व्याकरण के पूर्व यास्क का निरुक्त लिखा गया जिसमें अनेकानेक पूर्ववर्ती वैयाकरणों का उल्लेख है यथा औदुंबरायण, कौटुकी, शाकपूर्णि, शाकटायन आदि। पाणिनि में इनमें से गाये, शाकटायन, गालव और शाकल्य के नाम मिलते हैं। यह संभव नहीं कि इन पूर्ववर्ती वैयाकरणों की रचना अलिखित रही हो क्योंकि उनके मतों का हवाला भौखि आधार पर कोई कैसे दे सकता है। महाभारत, स्मृति, कौटिल्य-अर्थशास्त्र और कात्यायन-कामसूत्र आदि ग्रंथों में लेखन कार्य की स्थान-स्थान पर चर्चा है। यूनानी निपार्कस जो प्रसिद्ध सम्राट् अलेक्जेंडर का सेनापति था और भारतवर्ष आया था, कहता है कि रूई को कूट-फूट कर कागज परवती प्रमाण बनाना और उस पर लिखना भारतवासी भली- भाँति जानते हैं। मेगस्थनीज ने धर्मशालाओं तथा दूरी का पता बतानेवाले पापाणों का उल्लेख किया है तथा जन्मपत्र और पञ्चागों के उपयोग की बात लिखी है और यह भी लिखा है कि न्याय स्मृति के अनुसार होता है । निश्चय ही यह स्मृतेयाँ लिखित ग्रंथ के रूप में रही होगी। इसवी पूर्व पाँचवीं शताब्ळी के आसपास से ब्राझी अक्षरों में लिखे शिलालेख अजमेर के निकट बड़जी और नेपाल की तराई के पिप्रावा ग्राम में पाए गए हैं। इस समय तक इस लिपि का परिपूर्ण विकास हो चुका था। अशोक के शिलालेखों में यह लिपि सादेशीय बन चुकी थी और इसमें स्थानीय भेद भी आने लगे थे जो लिपि की विकसित अवस्था के घोतक हैं।