पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३२२

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भारतीय लिपिया का विकास २९३ लकारों की लिपि थी। उस समय भारत का व्यापार उत्तर पश्चिमी मार्ग से बहुत अधिक हुआ करता था। इस लिपि में ब्राह्मी लिपि की भाँति स्वरों तथा उनकी मात्राओं में हस्व-दीर्य का भेद न था और संयुक्ताक्षर भी बहुत कम व्यत्रत होते थे। यह लिपि ब्राह्मी-लिपि की भाँति वैज्ञानिक न बन पाई, यद्यपि यह व्यवहार में वरावर आती रही और ईसा की तीसरी शताब्दी तक इसका प्रचलन पंजाब आदि भारत के पश्चिमी प्रांतों में था। तत्पश्चात् यह धीरे-धीरे लुप्त हो गई और इसका स्थान ब्राह्मो-लिपि ने ले लिया। भारत की वर्तमान सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि की ही वंशजा हैं । यह बात आश्चर्यजनक प्रतीत होती है कि इतने बड़े देश में सुदूर दक्षिण की लिपियाँ उत्तर की दूरस्थ लिपियो की सहोदरा देवनागरी तथा भगिनी हो किंतु लिपि-वेत्ताओं ने इस संबंध अन्य लिपिया में शंका लिए कोई स्थान नहीं रक्खा है । ब्राह्मीलिपि की दो प्रधान शाखाएं मानी जाती हैं एक उत्तरी शाखा और दूसरी दक्षिणी शाखा। समस्त भारत की वर्तमान लिपियाँ उर्दू को छोड़कर इन्हीं दोनों शाखाओं के अंतर्गत आती हैं। भारतीय लिपियों की उत्पत्ति और विकास के संबंध में अपर के विचरण के साथ कुछ चित्र देने भी आवश्यक हैं जिनसे यह पता लग जाय कि १ ---ब्राह्मी लिपि किसी सेमेटिक लिपि की अनुकृति नहीं है और जिससे यह भी ज्ञात हो सके कि २-~भारत की वर्तमान लिनियाँ किस प्रकार ब्राह्मी लिपि से ही विकसित और अनुवर्तित होकर वनी हैं । ये ही दो मुख्य स्थापनाएँ भारतीय लिपियों के संबंध में हमें करनी थीं और इन चित्रों को देखने के पश्चात् पाठकों को इस विषय में दृढ़ निश्चय हो सकेगा । इसी आशय से ये चित्र यहाँ दिए जा रहे हैं जिनके लिये स्वर्गीय महामहोपाध्याय डाक्टर गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी के अत्यधिक अनुगृहीत हैं। LU