पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३२६

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पाठवाँ प्रकरण प्रागैतिहासिक खोज जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं कि यद्यपि जाति और भापा का प्राय: घनिष्ठ संबंध स्थापित किया जाता है, परंतु वास्तव में कोई विशेष भाषा किसी विशेष जाति की संपत्ति नहीं होती। भाषा और जाति जिस प्रकार मनुष्य-मात्र धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन और कला-कौशल की उन्नति करके उसे अपनी विशिष्ट संपत्ति वना लेता है, उसी प्रकार भाषा पर भी अधिकार किया जाता है । जिस प्रकार स्थिति के अधीन होकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के अादों तथा कला-कौशल के उद्देश्यों का विनिमय होता है, उसी प्रकार भाषा का भी विनिमय होता है। यदि सुयोग मिले तो हर एक मनुष्य प्रत्येक भाषा सीख सकता है, चाहे वह उसके पूर्वजों की भाषा हो, चाहे विदेशियों की । इस प्रकार मनुष्यों का कोई विशिष्ट समाज भी इस भापा-संपत्ति का अर्जन कर सकता है। जिस प्रकार किसी विशिष्ट समाज में भिन्न भिन्न जातियों या वंशों के लोग सम्मिलित हो जाते हैं, एक ही भाषा बोलने लगते हैं और दूसरी भापा का नाम तक नहीं जानते, उसी प्रकार बड़े बड़े समाजों में भी भिन्न भिन्न लोग सम्मिलित होकर अपनी अपनी जातीय भाषा भूलकर उसी समाज में प्रचलित भाषा को ग्रहण कर लेते हैं। भारतवर्ष में पारसी या मुसलमान समुदाय के लोग इसके बड़े अच्छे उदाहरण हैं । पारसी लोग गुजरात में बस जाने के कारण अपने पूर्व-पुरुपों की भापा होड़कर गुजराती भाषा का व्यवहार करते हैं । इसी प्रकार पंजाब या वंगाल में बसे हुए मुसलमान पंजाबी या बँगला भाषाओं का प्रयोग करते हैं । हूण और सोडियन लोगों ने प्राचीन समय में २९७