पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३४२

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परिशिष्ट हिंदी स्वरों और व्यंजनों का भाषा- -वैज्ञानिक वर्णन (१) अ---यह ह्रस्व, अविवृत, मिल स्वर है अर्थात् इसके उच्चारण में जिह्वा की स्थिति न बिलकुल पीछे रहती है और न बिलकुल आगे । और यदि जीभ की खड़ी स्थिति अर्थात् समानाक्षर ऊँचाई-निचाई का विचार करें तो इस ध्वनि के उच्चारण में जीम नीचे नहीं रहती-थोड़ा सा ऊपर उठती है इससे उसे अर्द्धविवृत मानते हैं। इसका उच्चारण-काल केवल एक मात्रा है। उदाहरण..-अव, कमल, घर, में अ, क, म, घ । यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि हिंदी शब्द और अक्षर के अंत में अ का उच्चारण नहीं होता। ऊपर के ही उदाहरणों में व, ल, र, में हलंत उच्चारण होता . है....अ का उच्चारण नहीं होता। पर इस नियम के अपवाद भी होते हैं जैसे दीर्घ स्वर अथवा संयुक्त व्यंजन का परवर्ती अ अवश्य उच्चरित होता है; जैसे-सत्य, सीय । 'न' के समान एकाक्षर शब्दों में भी अ पूरा उच्चारित होता है; पर यदि हम वर्णमाला में अथवा अन्य किसी स्थल में क, ख, ग आदि वर्गों को गिनाते हैं तो अ का उच्चारण नहीं होता अत: 'क' लिखा रहने पर भी ऐसे प्रसंगों में वह हलंत क् ही समझा जाता है। (२) श्रा--यह दीर्घ और विवृत पश्च स्वर है और प्रधान आ से बहुत कुछ मिलता जुलता है । यह अ का दीर्घ रूप नहीं है क्योंकि दोनों में मात्रा-भेद ही नहीं, प्रयत्न-भेद और स्थान-भेद भी है। अ के उच्चारण में जीभ बीच में रहती है और आ के उच्चारण में बिलकुल पीछे रहती है अत: स्थान-भेद हो जाता है। यह स्वर हस्त्र रूप में व्यवहृत नहीं होता।