पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१४ भाषा-विज्ञान उदा०-आम, आदमी, काम, स्थान । (३) ऑ-अँगरेजी के कुछ तत्सम शब्दों के वोलने और लिखने में ही इस अर्धविवृत पश्च ऑ का व्यवहार होता है। इसका स्थान आ से ऊँचा और प्रधान स्वर ओं से थोड़ा नीचा होता है। उदा०-कॉग्रेस, लॉर्ड। (४) ओं-यह अर्धविवृत ह्रस्व पश्च वृत्ताकार स्वर है । अर्थात् इसके उच्चारण में जीभ का पिछला भाग (=जिह्वामध्य) अर्धविवृत पश्च प्रधान स्वर की अपेक्षा थोड़ा ऊपर और भीतर की ओर जाकर दब जाता है। होठ गोल रहते हैं। इसका व्यवहार ब्रजभाषा में पाया जाता है। उदा०-अवलोकि हो सोच-विमोचन को (कवितावली, बालकांड १); बरु मारिए मोहि विना पग धोए. हो नाथ न नाव चढ़ाइहो जू (कवितावली, अयोध्याकांड ६)। (५) ऑ---यह अर्धविवंत दीर्घ पश्च वृत्ताकार स्वर है। प्रधान स्वर श्री से इसका स्थान कुछ ऊँचा है। इसका व्यवहार भी ब्रजभाषा में ही मिलता है। उदा०--वाकॉ, ऐसा, गयो, भयो। श्री से इसका उच्चारण भिन्न होता है इसी से प्रायः लोग ऐसे शब्दों में 'श्री' लिख दिया करते हैं। (६) ओ-यह अर्धसंवृत्त हस्व पश्च वृत्ताकार स्वर है। प्रधान स्वर ओं की अपेक्षा इसका स्थान अधिक नीचा तथा मध्य की ओर मुका रहता है। प्रजभाषा और अवधी में इसका प्रयोग मिलता है। पुनि लेत मोड जेहि लागि अरें (कवितावली, बालकांड, ४), श्रोहि कर विटिया (अवधी बोली), सोनार । (७) श्रो-यह अर्धसंवृत दीर्य पश्च वृत्ताकार स्वर है। हिंदी में यह प्रधान मान-स्वर है। संस्कृत में भी प्राचीन काल में यो संभ्यार था पर अब तो न संस्थत ही में यह संध्यक्षर है, और न हिंदी में