पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३४६

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स्वर और व्यंजन ३१७ कि यह उदासीन अपश्चिमी हिंदी की पश्चिमी वोली में भी पाया जाता है। अवधी में तो यह पाया ही जाता है; जैसे-सोरही, रामक । आजकल की टकसाली खड़ी बोली के उच्चारण के विचार से इन १९ अक्षरों में से केवल ९ ही विचारणीय हैं-अ, आ, ऑ, इ, ई, उ. ऊ, ए, ओ। उनमें भी ऑ केवल विदेशी शब्दों में खड़ी बोली के स्वर प्रयुक्त होता है अर्थात् हिंदी में समानाक्षर पाठ ही होते हैं। इसके अतिरिक्त हिंदी में हस्व ऐं और ओ का भी व्यव- हार होता है; जैसे-ऍक्का, सोनार, लोहार । शेष विशेष स्वर विभा- पाओं और बोलिओं में ही पाए जाते हैं । ऊपर वर्णित सभी अक्षरों के प्रायः अनुनासिक रूप भी मिलते हैं पर इनका व्यवहार शब्दों में सभी स्थानों पर नहीं होता..कुछ विशेष स्थानों पर होता है। हिंदी की बोलियों में अनुनासिक स्वर बुंदेली अधिक अनुनासिक-बहुला है । अनुनासिक और अननुनासिक स्वरों का उच्चारण स्थान तो वही रहता है; अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में केवल कोमल तालु और कौआ कुछ नीचे झुक जाते हैं जिससे हवा मुख के अतिरिक्त नासिका- विवर में भी पहुँच जाती है और गूंजकर निकली है । इसी से स्वर अनु- नासिक' हो जाते हैं। उदाहरण-- अँ--अंगरखा, हँसी, गवार। आँ...आँसू , बाँस, साँचा। इ-बिंदिया, सिंघाड़ा, धनिया ! ई-ईट, ईगुर सींचना, आई। उ~-घुवची, बुंदेली, मुंह । ॐ-ऊँधना, सूंघना, गेहूँ। ए-गेंद, ऐंचा, बातें। इसके अतिरिक्त ब्रज के लो, सों, हो में आदि अवधी के बेटुआ गोंठिवा (गाँठ में बाँधूगा) आदि शब्दो में अन्य विशेष स्वरों के अनु- नासिक रूप भी मिलते हैं।