पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/६५

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भाषा-विज्ञान चाहिए कि भारोपीय भाषाओं के विकसित रूपों को विद्वान् पूर्णतः विभक्ति-प्रधान नहीं मानते। अँगरेजी और हिंदी जैसी आधुनिक भारोपीय भापाएँ इतनी व्यव- हित होती हैं कि उनमें व्यास और संयोग के भी पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। इसी से स्वीट जैसे विद्वान् अँगरेजी हिंदी का स्थान को व्यवहित विभक्ति-प्रधान भाषा कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं, अर्थात् इनके व्यास और प्रत्यय-संयोग के ही उदाहरण अधिक मिलते हैं। विभक्ति के लक्षण थोड़े मिलते हैं । हिंदी के विषय में भी ठीक यही कहा जा सकता है। (ख) वंशानुक्रम वर्गीकरण सब भाषाओं में निरंतर परिवर्तन होता रहता है और एक मुख्य भाषा में प्राय: उतने ही विभेद हो जाते है जितने उसके बोलने- वालों के समुदाय होते हैं। हम यह जानते हैं कि भाषा में निरंतर परिवर्तन भाषण का अवलंब कुछ प्राकृतिक तथा मानसिक क्रियाग होती हैं और मनुष्य मात्र में इन क्रियाओं का एक सा होना सर्वथा असंभव है। दूसरे जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भाषा एक प्रकार की अर्जित संपत्ति है। इसके अर्जन में कुछ पुराने तथ्य लुप्त हो जाते हैं और कुछ नये तथ्यों का आविर्भाव हो जाता है; क्योंकि किसी संपत्ति का अर्जन करना अर्जनकर्ता की योग्यता तथा स्थिति पर निर्भर रहता है। इसी प्रकार भापा के अर्जन पर भी प्रत्येक मनुष्य. की सुनने और बोलने की योग्यता तथा उसकी भौगोलिक परिस्थिति का प्रभाव पड़ता है। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति के भापण के भावों में परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन के पाल ने तीन मुख्य कारण बताग हैं-(१) प्रत्येक अनुभव या चित्त का संस्कार, यदि यह बार बार न हो अथवा ज्ञानावस्था में उसकी उद्धरणी न हो तो, क्रमश: क्षीण पड़ता जाता है, (२) बोलन, सुनने और विचार करने की प्रत्येक किया से भापरण-संपत्ति के भंडार में कुछ न कुछ वृद्धि होती जाती है, और (3) भापगण-तत्त्वों के दृढ़ होने तथा