पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/४६

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राष्ट्रभाषा की परंपरा की भाषा थी। उसके प्रसार के लिये कठोर विधान अपेक्षित था, जो भारतीयों से हो नहीं सकता था। अपभ्रश क्या प्रकृति, क्या प्रवृत्ति, क्या परिस्थिति और क्या प्रतिष्टा, सभी दृष्टियों से संपन्न और राष्ट्रभापा के उपयुक्त थी। जिन पिशाचों के संसर्ग में आ जाने से उसमें भ्रष्टता आ गई थी उनकी गणना अब भारत के शुद्ध क्षत्रियों में हो गई थी और राजपूत नामक एक पक्की क्षत्रिय-जाति निकल आई थी। भाभीर और गुर्जरों का संबंध ब्रजबिहारी गोपाल कृष्ण से स्थापित हो गया था। उनके साथ की उनकी रास-लीला पतित- पावन हो चुकी थी। अहीर की छोकरियाँ तनिक सी छाँछ पर अब कृष्ण को नाच नचाती थीं और 'गूजरी' व्रजवल्लभ को मोह लेती थीं। मतलब यह कि अपभ्रंशवाले आभीर भी पूत हो गए थे। फिर उनकी वाणी किस मुंह से भ्रष्ट कही जाती ? अपभ्रंश पैशाची और ब्राह्मी के मेल से बनी थी। वह संकर नहीं, वास्तव में शवल श्री। एक ओर भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा से उसका संबंध था तो दूसरी ओर वर्तमान शासक- वर्ग से उसका लगाव। स्थिति भी बहुत कुछ मध्य में थी। उत्तर में पैशाची, दक्षिण में सहाराष्ट्री और पूर्व में शौरसेनी का प्रांत था जो उसकी जननी नहीं तो सगी अवश्य थी। अन्तु, अपभ्रंश के सहसा राष्ट्रभाषा बन जाने के प्रधान कारण थे:-(१) उसका राष्ट्रभाषा की परंपरागत भाषा के वंश में होना; तथा (२) उस पैशाची आपा से लगाव रखना जो कभी अधिकांश प्रांतों की राजभाषा थी और शकादिकों के साथ