पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/४८

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राष्ट्रभाषा की परंपरा "यामीरी भाषा अपन शस्था कथित्ता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते।" नमिसाधु के इस कथन से प्रकट होता है कि अपभ्रंश मगध की देशभाषा न थी। वह कहीं कहीं मागधी के क्षेत्र में भी दिखाई दे जाती थी। अपभ्रंश के इस मागधी रूप के लिये नमिसाधु ने वही 'तस्व लक्षणं लोकादेव सम्यगवसेयम्' का विधान किया है और प्रकृत अपभ्रंश का कुछ विचार कर प्रसंग को समाप्त कर दिया है। अपभ्रंश के मागधी रूप के निदर्शन का. यह समय नहीं। इसके लिये वज्रयानियों के गाना-विशेषतः सरह और कृष्णा- चार्य-का अध्ययन करना चाहिए। यहाँ पर हम इस प्रसंग के स्पष्टीकरण के लिये विद्यापति का एक पद्य उद्धृत करते हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देशभाषा के संबंध में उनका मत है- "सक्कय वाणी बहुअ न भावइ, पाउँअ रस को मम्म न पावइ । देसिल बयना सब जन मिट्ठा, तँ तैसिन जंपओ अवहट्ठा ।।" (कीर्तिलता) 'तँ तैसिन के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि देशी भाषा की भाँति अपभ्रश भी कभी व्यापक लोकप्रिय थी। इसी लोकप्रियता के कारण विद्यापति ने उसी में कविता का श्रीगणेश किया। आगे चलकर विद्यापति ने संस्कृत तथा मैथिली को महत्त्व दिया और अवहट्ट की उपेक्षा की। निश्चय ही उनके अपभ्रष्ट-प्रेम का प्रधान कारण अपभ्रश की प्रतिष्टा अथवा उसका व्यापक व्यवहार था। 'पाल' तथा 'सेन राजाओं के शासन में प्राच्चा के क्षेत्र में भी अपभ्रंश का व्यापक