पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/८४

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हिंदुस्तानी "हिंदू भाइयों के दिलों में यह खयाल जोर पकड़ने लगा कि प्रब, जब मुसलमानों की सल्तनत के दवाव से वह आजाद हो दुक हैं तो हमको इसलामी असर की हर चीज से आजाद होना चाहिए। इस बिना. पर अँगरेजों की तारीक की सयासी तहरीक बहुत कारामद साबित हुई। और सबसे पहले उसका असर जवान के मुआमिले में ज़ाहिर हुआ। और हिंदी के नाम से एक जवान की तबत्ती शुरू हुई। और वाज सूवों में यहाँ तक किया गया कि उर्दू खत तक अदालतों से खारिज कर दिया गया। और अब यह तहरीक यहाँ तक जोर पकड़ रही है कि यह कोशिश की जा रही है कि इस सूबे के चन्द शारों ने जिस भाषा में कुछ मजहबी नहमें कभी लिखी थीं वही पूरे मुल्क की जवान बना दी जाय।" उचित तो यह था कि हमारे राष्ट्र प्रेमी कांग्रेस-भक्त नेता हिंदुस्तानी के इतिहास पर ध्यान देते और इसके सच्चे स्वरूप का प्रचार पहले अदालतों में करते, फिर यदि मन न मानता तो साहित्य को भी उसके कठघरे में घेरने की मोहक चेष्टा करते। उनकी तथा सैयद साहब सरीखे हिंदुस्तानी- भक्तों की जानकारी के लिये नम्र निवेदन है कि हम उसी हिंदी, हिंदुस्तानी या नागरी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करते हैं, जिसके लिये शाही सरकार के अधीन कंपनी सरकार ने यह विधान कर दिया है- "जीला के फौजदारी के साहेब लोग को लाजीम है के थाने- दारि के तहसीलदार सम वो दारोगा को सनद मैं इस आइन