पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०५ पहिला हिस्सा - लगाया जिससे उतनी जगह का लोहा गल कर मोमवत्तो की तरह हो गया और भूतनाथ ने उसे बडी श्रासानी से हटा कर अपने निकलने लायक रास्ता वना लिया । वात की बात में भूतनाथ कैदखाने के बाहर हो गया और मैदान की हवा खाने लगा। भूतनाथ कैदखाने के बाहर हो गया सही मगर उसके लिए इस घाटी से वाहर हो जाना वडा ही कठिन था । एक तो अन्धेरी रात दूसरे पहाड की ढालवी और अनगढ ढोको वाली पथरीली जमीन, तिस पर पगडएडी और रास्ते का कुछ पता नहीं । मगर खैर जो होगा देखा जायगा, भूतनाथ को इन बातो की कुछ परवाह न थी। अब हम थोडा सा हाल उम लोंडी का बयान करेंगे जो मूतनाथ के हाथ से वटुग्रा वापस लेकर चली गई थी। उसे अपने किये पर बडा ही पछतावा था, उसे इस बात का बडा ही दुख था कि उमने भूतनाथ से अपने मालिको का नाम बता दिया जो अपने को बहुत ही छिपा कर इस घाटी में रहती थी अब वह इस बात को खूब समझने लगी कि अगर भूतनाथ किसी तरह छूट कर निकल गया तो मेरे इस कर्म का बहुत ही बुरा नतीजा निकलेगा पोर भेद खुल जाने के कारण मेरे मालिको को मस्त तकलीफ उठानी पडेगी । वह यही सोचती हुई जा रही थी कि मैने वहुन ही बुरा किया जो लालच में पड़ कर अपने वेकनर मालिको के सार ऐसी वेईमानी का वताव किया। पत्र क्या किया जाय और मैं अपने इन पाप का पया प्रायश्चित करें ? साथ ही इन उसने यह भी सोचा कि भूतनाय का यह बटुमा कुछ हलका मालूम पता है । इसमें अब वह वजन नहीं है जो पहिले या जब मै नाई थी। मालूम होता है भूतनाय ने अन्धेरे में ढाल कर अपने मतलब की चीज निकाल ली । अपने हाथ की रचनो हुई चीज निकालने के लिये बुद्धिमान मादमी को रोशनी की जरूरत नहीं पटती । भूननाथ ने वही चालाको पो, अपना काम कर लिया और मुझे वेवकूफ बना कर विदा -