है कि तुमने मुझे कुछ बताया है।
कला०। यह बात छिपी नही रह सकती, यह घाटी तिलिस्मी है और यहाँ के हर एक पेड पत्तों और पत्थरों के ढोकों को भी कान है, मेरी बहिन ने इस बात का कुछ ख्याल नहीं किया और इसी लिये आखिरकार जान से मारी गई।
गदा०। (आश्चर्य से) क्या तुम्हारी बहिन मारी गई?
कला०। हाँँ क्योंकि मालकिन को तुम्हारी और उसकी बातोंं का किसी तरह पता लग गया।
गदा०। रात का समय था, सम्भव है किसी ने छिप कर सुन लिया हो, इसके अतिरिक्त और किसी तिलिस्मी बात का मैं कायल नहीं। इस समय दिन है, चारो तरफ आखें फैला के देखो, किसी की सूरत दिखाई नहीं देती, अस्तु मेरी तुम्हारी बातें कोई सुन नही सकता, तुम बेखौफ हो कर यहाँँ का हाल इस समय मुझे बता सकती हो।
कला०। नही, कदापि नही।
गदा०। (कमर से खंञ्जर निकाल कर और दिखा कर) नहीं तो फिर इसी से तुम्हारी खबर ली जायगी!
कला०। जो हो, बताने के बाद भी तो मैं किसी तरह बच नही सकती, फिर ऐसी अवस्था में क्यों अपने मालिक को नुकसान पहुंचाऊ? चाहे तिलिस्मी बातों का तुम्हें विश्वास न हो पर मैं समझती हूं कि मेरे और तुम्हारे बीच जो जो बातें हो रही है वह सब मेरी मालकिन सुन रही होगी
गदा०। (खिलखिला कर हंस कर) ठीक है, तुम्हारी बातें...
कला०। बेशक ऐसा ही है, मगर मैं इस घाटी के बाहर होती तो इस बात का ख्याल न होता और यहाँ के भेद शायद बता देती।
गदा०। (मुस्कुराते हुए) यही सही, तुम मुझे इस घाटी के बाहर ले चलो भौर यहा के भेद बता दो तो मैं तुम्हें.....
कला०। नही नही, किसी तरह का वादा करने की कोई जरूरत