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भूतनाथ
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गदा०। हाँ बेशक, और इसी लिये तो मैंने तुमसे दलीपशाह के पास पहुंचा देने का वादा किया है।

कला०। अच्छा चलो।

गदाधरसिंह कला के साथ उस बुर्ज के अन्दर घुस गया। उसने देखा कि कला ने ऊपर चढ़ कर उस झंडी के बांस को जो बुर्ज के बीचो बीच से छत फोड कर अन्दर निकला हुआ था घुमा दिया, बस इसके अतिरिक्त उसने और कुछ भी नहीं किया और बुर्ज के नीचे उतर आई। बाहर निकलने पर गदाधरसिंह ने देखा कि जिस रुख पर पीले रंग की झंडी थी अब उस रुख पर लाल रग की झंडी है, मगर इस काम से और इस सुरंग के दर्वाजे से क्या सम्बन्ध हो सकता है सो उसकी समझ में न आया। कुछ गौर करने पर यकायक ख्याल आया कि ये झण्डिया यहां रहने वालो के लिए इशारे का काम करती हों तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है ? वह सोचने लगा कि निःसन्देह यह औरत बडी चालाक और धूर्त है, पहिले भी इसी ने मुझ पर वार किया था, वेहोशी को दवा से भरा हुमा तमध्चा इसी ने तो मुझ पर चलाया था और इस समय भी इसी से मुझे पाला पडा है, देखना चाहिये यह क्या रंग लाती है। इस समय भी अगर यह मेरे साथ दगा करेगी तो मैं इसे दुरुस्त हो करके छोडुंगा, इत्यादि।

गदाधरसिंह को सोच और विचार में पड़े हुए देख कर कला भो समझ गई कि यह मेरे हो विषय में चिन्ता कर रहा है और इसे इस झण्डी के घुमाने पर शक हो गया है अस्तु उसने शीघ्रता की मुद्रा दिखाते हुए गदाघरसिंह से कहा, "बस मानो भौर जल्दी से खोह के अन्दर घुसो क्योंकि पहला दर्वाजा खुल गया है।"

बुर्ज के नीचे उतर आने के बाद गदाघरसिंह को साथ लिये हुए कला यहाँ से पश्चिम तरफ ढालवी जमीन पर चलने लगी और लगभग तीस या चालीस कदम चलने के बाद एक ऐसी जगह पहुंची जहाँ चार पाँँच पेड पारिजात के लगे हुए थे और उनके बीच में जंगली लतामों से छिपा हुआ