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दूसरा भाग
 



के अन्दर हम लोगो ने तुम्हें किसी तरह का दुख नहीं दिया क्योकि हम लोग तुम्हारे साथ कोई और ही सलूक किया चाहती हैं और किसी दूसरे ढंग पर बदला लेने का इरादा है। यह तुम्हारी भूल है कि तुम मुझे अपने कब्जे में समझते हो, अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो चुपचाप चले आओ।'

कला की ऐसी बातें सुन कर गदाधरसिंह झल्ला उठा और उसने क्रोध के साथ कमन्द खेंची। उसे आशा थी कि कला इसके साथ खिंचती हुई चलो आवेगी मगर ऐसा न हुआ और खाली कमन्द खिंच कर गदाधरसिंह के हाथ में आ गई, क्योकि रास्ता चलते चलते कला ने वह कमन्द खोल डाली थी, इसलिए कि उसके हाथ खुले थे। गदाधरसिंह ने इस ख्याल से उसके हाथ नही बांधे थे और कला ने भी ऐसा ही वहाना किया था कि सुरंग के अन्दर कई कठिन दर्वाजे खोलने पड़ेंगे।

जिस समय खाली कमन्द खिंंच कर गदाधरसिंह के हाथ में आ गई उसका कलेजा दहल उठा और वह वास्तव में वेवकूफ सा बन कर चुपचाप सहा रह गया मगर साथ ही कला को आवाज आई-"कोई चिन्ता मत करो, चुपचाप कदम बढ़ाते चले आओ और समझ लो कि यहां भी तुम्हें बहुत कुछ सोचना पड़ेगा।"

एक खटके को आवाज और आहट से उसी समय यह भी मालूम हो गया कि जिस चौखट को लांघ कर वह आया था उसमें किसी तरह का दर्वाजा था जो उसके ईधर आ जाने के बाद आपसे आप बन्द हो गया। पीछे की तरफ हट कर और हाथ बढा कर देखा तो अपना खयाल सच पाया और विश्वास हो गया कि अब उसका पीछे की तरफ लौट जाना भी असम्भव हो गया।

वहा की अवस्था और कला की बातों से गदाधरसिंह का गुस्सा बराबर बढता ही गया और इस बात को उसे बहुत ही शर्म आई कि एक साधारण औरत ने उसे उल्लू बना दिया।मगर वह कर ही क्या सकता था, उस अनजान सुरंग और अन्धकार में उसका क्या बस चल सकता था? परन्तु इतने पर भी उसने मजबूर होकर कला के पीछे पीछे टटोलते हुए जाना पसन्द नहीं किया।