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दूसरा भाग
 



करने से विश्वास हो गया कि यह उसी औरत (कला) की आवाज है जिसकी बदौलत वह यहाँँ तक आया। आवाज किस तरफ से आयी,आवाज देने वाला कहाँ है और वहाँँ तक पहुचँने की क्या तरकीब हो सकती है इत्यादि बातों पर गौर करने के लिए भी गदाधरसिंह वहाँ न अटका और गुस्से के मारे पेचो ताब खाता हुआ दाहिनी तरफ वाली सुरंग में रवाना हुआ। थोड़ी देर तक तेजी के साथ चल कर वह सुरंग के बाहर निकल आया और ऐसे स्थान पर पहुँँचा जहाँ बहुत से सुन्दर और सुहावने वेल तथा पारिजात के पेड लगे हुए थे और हरी हरी लतापो से सुरंग का मुँँह ढका हुआ था।

जहाँ पर गदाधरसिंह खडा था उसके दाहिनी तरफ कई कदम की दूरी पर सुन्दर झरना था जो पहाड की ऊँँचाई से गिरता हुआ तेजी के साथ बह रहा था। यद्यपि इस समय उसके जल की चौडाई चार या पाँँच हाथ से ज्यादे न थी मगर दोनो तरफ के करारों पर ध्यान देने से विश्वास होता था कि मोसिम पर जरूर यह चश्मा छोटी मोटी नदी का रूप धारण कर लेता होगा।

गदाधरसिंह ने देखा कि उस चश्मे का जल मोती की तरह साफ और 'निघरा हुआ बह रहा है और उसके उस पार वही औरत (कला) जिसने उसे धोखा दिया था हाथ में तीर कमान लिये खडी उसकी तरफ देख रही है। यह अकेली नहीं है बल्कि और भी चार औरतें उसी की तरह हाथ में तीर कमान लिये उसके पीछे हिफाजत के ख्याल से खड़ी हैं।

गदाधरसिंह क्रोध में भरा हुआ लाल आँखो से उस औरत (कला) को तरफ देखने लगा और कुछ वोला ही चाहता था कि सामने से और भी दो आदमी आते हुए दिखाई दिये जिन्हें नजदीक पाने पर भी उसने नही पहिचाना मगर उसे खयाल हुआ कि इन दोनो ने ऐयारी के ढग पर अपनी सूरत बदली हुई है।

ये दोनो आदमी गुलाबसिंह पौर प्रभाकरसिंह थे जिनकी सुरत इस समय वास्तव में बदली हुई थी। प्रभाकरसिंह ने निगाह पड़ते ही कला को पहिचान लिया, क्योंकि ये उसी बदली हुई सुरत में कला और विमला को