पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१५४

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दूसरा भाग भूत० । ठीक है, मै परिचय देने के लिये इस समय जिद्द भी नहीं कर नकता, क्योकि श्राप बसे हैं प्रापकी आज्ञानुसार मुझे चलना ही चाहिये, अच्छा यह तो वताइए कि वह तिलिस्म जिमो श्राप दारोगा है अभी तक प्रापके कब्जे में है या नही । साधू० । हा अभी तक वह तिलिस्म मेरे ही कब्जे में है। भूत० । वह किस स्थान में है ? माधू० । इसो घाटो में वह तिलिस्म है,मै अवको दफे जब यहां प्राकर तुमसे मिलूगा तो उसका कुछ हाल कहूगा और अगर तुम इस घाटी में पाना बनाए रहोगे और तुम्हारी चाल चलन अच्छी देसूगा तो एक दिन तुमको उस तिलिस्म का दारोगा भी बना दूगा क्योकि अब मै बहुत वुड्ढा हा गया हूँ और तिलिस्म के नियमानुसार अपने वाद के लिये किसी न किमी को दारोगा बना देना बहुत जरूरी है । साधू महाशय को इस आखिरी बात को सुन कर भूतनाथ वहृत ही प्रसन्न हुआ। वह नानता था कि तिलिस्म का दारोगा बनना कोई मामूली बात नही है, उसके कब्जे मे वैभन्दाज दौलत रहती है और उसकी ताकत तिलिस्मो सामान को बदौलत मनुष्य की ताकत से कही बढ़ चढ कर रहती है । उसी समय भूतनाय का खयाल एक दफे इन्द्रदेव की तरफ गया और उसने मन में कहा कि देखो तिलिस्मी दारोगा होने के कारण हो इन्द्रदेव कैसे चैन और माराम के साथ रहता है, दुश्मनो का उमे जरा भी डर नहीं है और वास्तव में उसके दुरमा उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। मगर अफ- सोस भूतनाय ने इस बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि इन्द्रदेव कैसा नेक ईमानदार मौर साधू प्रादमी है तथा उसमें सहनशीलता और जमा शक्ति फितनो भरी हुई है, तिस पर भी वह दुश्मनो के हाथ फंपा सताया गया। भूता(बहुत नरमी के साथ) तो पाप पुन: कब तक सोट कर यहा प्रावेंगे? साधू० । इस विषय में जो कुछ मेरा विचार है उसे प्रगट करना अभी मैं उचित नहीं समझता। मू० २-४ '172