पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१७१

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भूतनाथ नही गई थी, बल्कि उसे इस वात का कुछ गुमान भी न था। यह तिलिस्म तलवार विमला ने प्रभाकरसिंह को दी थी और विमला ने इन्द्रदेव से पाई थी। इन्द्रदेव का क्यान है कि उन्हें इसी तरह के कई हवं कुपर गोपाल- सिंह ने अपने जमानिया के तिलिस्म में से निकाल कर दिये थे। इस तलवार में भी करीब करीव वही गुण था जो उस तिलिस्मी खजर और नेजे में था, जिसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में लिख आये हैं, फर्क बस इतना था कि जिस तरह उन खजरों में कन्जा दबाने से चमक पैदा होती थी उस तरह इसमें चमक नही पैदा होती थी और न इसके छूने से प्रादमी वेहोश ही होता था, मगर इसका जख्म लगने से बिजली के असर से प्रादमी वेहोश हो जाता था । उसको तरह इसके जोड को भी एक खूबसूरत अगूठी जरूरी थी जो इस समय प्रभाकर सिह की तर्जनी उगली में पड़ी हुई थी। इस प्रगूठी में यह भी गुण था कि अगर धोखे से उन्ही को इसका जल्म लग जाय तो उन्हें कुछ असर न हो । प्रभाकरसिंह की हिम्मत मरदानगी और ताकत देख कर भूतनाथ हैरान हो गया बल्कि यों कह सकते हैं कि घबहा गया । यद्यपि भूतनाथ भी मर्द मैदान और लडाका था तथा यहां पास ही में उसके कई मददगार भी थे जो उसके प्रावाज देने के साथ ही पहुंच सकते थे मगर फिर भी थोडी देर के लिये उसके ऊपर प्रभाकरसिंह का रोष छा गया और वह खडा होकर उनका मुंह देखने लगा। प्रभा० । हां वतानो तो क्या अब भी मैं कैदी हूँ भृतः । (बनावटी मुस्कुराहट के साथ) हा वेशक तुम ताकतवर और वहादुर हो, मगर समझ रक्खो कि ऐयारो का मुकाबला करना तुम्हारा काम नही है। प्रमा० । हाँ वेशक इस बात को मैं मानता हू, मगर खैर जैसा मौका होगा देखा जायगा । इस समय तुम्हारा क्या इरादा है सो साफ साफ कह डालो, अगर लडना चाहते हो तो मैं लडने के लिये तैयार हूं।