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भूतनाथ
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जान पडता कि इसमें कोई आदमी रहता है । कुछ देर तक देखने और गौर करने के बाद प्रभाकरसिंह सुरग के बाहर निकल पाये । अब उनको हिम्मत न पडी कि एक सायत के लिए भी उस घाटी के अन्दर ठहरें । उदास और दुखित चित्त से सोचते और गौर करते हुए वे वहां से रवाना हुए और सुरग की राह से बाहर निकल कर साध्या होने के पहिले ही उस ठिकाने पहुंचे जहा गुलाबसिंह को छोड़ गये थे । दूर हो से प्रभाकर सिंह की सूरत और चाल देख कर गुलाबसिंह समझ गए कि कुछ दाल में काला है, रग अच्छा नही दिखाई देता । जब गुलाबसिंह के पास प्रभाकरसिंह पहुंचे तो सबहाल वयान किया और उदास होकर उनके पास बैठ गये । गुलाबसिंह को बहा ही ताज्जुव हुआ और वे सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये ।

प्रभाकरसिंह के दिल पर क्या गुजरी होगी इसे पाठक स्वय समझ सकते है । उनके लिये दुनिया ही उजाड हो गई थी और चुनारगढ की लडाई में जो कुछ बहादुरी कर पाये थे वह सब व्यर्थ जान पडती थी। दोनों वहादुरों ने मुश्किल से उस जगल में रात बिताई और सवेरा होने पर अच्छी तरह निश्चय करने के लिए भूतनाथ की घाटी में जाने का इरादा किया। दोनों आदमी वहा से रवाना हुए और कुछ देर के बाद उस सुरग के मुहाने पर जा पहुंचे जिस राह से भूतनाथ अपनी घाटी में आया जाया करता था। रास्ते तथा दर्वाजे का हाल प्रभाकरसिंह से कुछ छिपा न था प्रस्तु वे दोनो शीघ्र ही घाटी के अन्दर जा पहुचे ओर देखा कि वास्तव में यहा भी सव उजाड़ा पडा हुआ है और लक्षणो से जाना जाता था कि यहा वर्षों से कोई नही पाया और न कोई रहता है ।अब कहा चलना चाहिये।

तरह तरह की बातें सोचते विचारते प्रभाकरसिंह पौर गुलाबसिंह घाटी के बाहर निकल पाये और एक पेड़ के नीचे बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगे ––

गुलाव० । आश्चर्य की बात तो यह है कि दोनों घाटिया एक दम से साली हो गई । मव रणधीरसिंहजी के यहा चल कर पता लगाना चाहिए ।