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दुसरा भाग
 

थो पोर न वे विशेष दुनियादारी के मामले मे ही पढ़ते थे, वह वास्तव में साधू और महात्मा की तरह प्रपनी जिन्दगी बिताते थे मगर ढंग उनका प्रमोराना था | मतलब यह है कि सर्वमाधारण का इन्द्रदेव के विषय में पूरा पूरा ज्ञान नही था, हो इतना जरूर मशहूर पा कि इन्द्रदेव ऊंचे दर्जे के ऐयार हैं पोर टनके बुजुर्गों ने ऐपारी के फन में यात दौलत पैदा की है जिसकी बदौलत प्रान तक इन्द्रदेव बहुत रईस पोर घमोर बने हुए हैं।

यह सब कुछ था सही परन्तु इन्द्रदेव के दो चार दोस्त ऐसे भी थे जिन्हें इन्द्रदेव का पूरा पूरा हाल मालूम था। मगर इन्द्रदेव की तरह वे लोग भी इस बात को मन्त्र की भाति छिपाये रहते थे।

इन्द्रदेव का रहने का स्थान कैगा था और यहा जाने के लिये कसी फैसो कठिनाइयों उठानो पटती थी इसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में लिसा जा चुका है यहा पुन लिखने की कोई प्रावश्यकता नही है, हो इतना कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि जिन दिनों का हाल इस जगह लिखा जा रहा है उन दिनो इन्द्रदेव निश्चित प मे उस तिलिस्मो घाटो हो मे नही रहा करते थे बल्कि अपने लिये उन्होंने एक मकान निनिरमो घाटो के बाहर उसके पास ही एफ पहाडो पर वनवाया हुआ था जिसका नाम "फैलाश" रखा और इसी मकान में वह ज्यादे रहा करते थे, हाँ जब जमाने के हाथो से वह ज्यादे सताये गये पर उन्होने उदास होकर दुनिया ही को तुच्छ समझ लिया तब उन्होने बाहर का रहना एकदम से बन्द कर दिया जैसा कि चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है।

प्रभाकरसिंह जब इन्द्रदेव से मिलने गये तब उसी बनाश भवन' में मूलाकात हुई। उन दिनों इन्द्रदेव बीमार थे, यधरि उनकी बीमारी ऐसी न थी की चारपाई पर पड़े रहते परन्तु घर के बाहर निकलने योग्य भी वह न थे। प्रभाकरसिंह पोर गुलाबसिंह से मिल कर इन्द्रदेव ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की पर चटीपातिरदारी ने इन दोनो को परने यहाँ सपा प्रभाकरसिंह ओर गुलाबसिंह ने इन्द्रदेव को बीमारी पर सैद प्रकट क्यिा ओर उसी