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भूतनाथ
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दूसरे हाथ से प्रभाकरसिंह का हाथ थाम कर धोरे धीरे आगे की तरफ बढी। जमना सरस्वती और इन्दुमति वहाँ से पीछे हट कर एक सुन्दर चट्टान पर बैठ गई और इन्तजार करने लगी कि प्रभाकरसिंह मैदान से होकर लौटें और चश्मे पर जाय तो हम लोग भी उनके पास चलें मगर ऐसा न हो सका क्योकि घन्टे भर से भी कम देर में सब कामो से छुट्टी पाकर हरदेई के हाथ का सहारा लिये हुए प्रभाकरसिंह धीरे धीरे चलते हुए उस जगह मे पहुँचे जहा जमना सरस्वती और इन्दुमति बैठी हुई इनका इन्तजार कर रही थी। जख्मों के विषय में सवाल करने पर प्रभाकर सिंह ने उत्तर दिया कि नहर के जल से मैं सब जख्मों को साफ कर चुका हू अब उनके विषय में चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।

 प्रभाकरसिंह भी उन तीनो के पास बैठ गए और लडाई के विषय में तरह तरह की बातें करने लगे । जब सन्ध्या होने में थोडो देर रह गई और हवा में सर्दी बढने लगे तब सब कोई वहाँ से उठ कर बगले के अन्दर चले गये । एक कमरे के अन्दर जाकर प्रभाकरसिंह चारपाई पर लेट गए । थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा रहा क्योकि जरूरी कामो से छुट्टी पाने तथा भोजन की तैयारी करने के लिये जमना और सरस्वती वहा से चली गई और केवल चारपाई की पाटो पकड़े हुए इन्दुमति तथा पैर दवाती हुई हरदेई वहाँ "ह गई।
 कुछ देर तक प्रभाकरसिंह और इन्दुमति मे मामूली ढंग पर धीरे धीरे वात चीत होती रही इसके बाद प्रभाकरसिंह ने यह कह कर इन्दुमति को विदा किया कि 'मैं भूख से बहुत दुखी हो रहा हूं, जो कुछ तैयार हो थोडा बहुत खाने के लिए जल्द लाओ।
 आज्ञानुसार इन्दुमति वहा से उठ कर कमरे के बाहर चली गई और तब प्रभाकरसिंह और हरदेई में धीरे धोरे इस तरह वातचीत होने लगी 
 प्रभा० । हो तो तुम्हे दाना खोलने का ढग अच्छी तरह मालूम हो चुका है’