तीसरा हिस्सा तो कदाचित् सम्हल जाते परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया और नकानी हर. देई को वास्तव मे हरदेई मान कर अपने भाग्य का सब दोप समझ लिया, यही सवव था कि यहा पर भी वे रामदास की तरफ से विल्कुल ही वैफिक बने रहे और चबूतरे पर लेट कर वेफिक्री के साथ खर्राटे लेने लगे। प्रभाकरसिंह को निद्रा के वशीभूत देख कर रामदास चौकन्ना हो गया। उसने ऐयारी के वटुए मे से जिसे वह वडी सावधानी से छिपाये हुए था वेहोशी की दवा निकाली और होशियारी से प्रभाकरसिंह को सुधाया। जव उसे विश्वास हो गया कि अब ये बेहोश हो गये तव उनके जेब में से वह किताव निकाल ली जिसमे इस तिलिस्म का कुछ हाल लिसा हुअा था और जिसे प्रभाकरसिह दो दफे पढ़ चुके थे । fताव निकाल कर उसने वडे गौर से थोडा सा पढा तब वडी प्रसन्नता के साथ सिर हिला कर उठ खडा हुना और दिल्लगी के ढंग पर बेहोश प्रभाकरसिंह को झक कर मलाम करता हुअा एक तरफ चला गया। बेहोशी का असर दूर हो जाने पर जब प्रभाकरसिंह की पाखें खुली तो वे धवडा कर उठ बैठे और वेचनी से चारो तरफ देखने लगे। आसमान की तरफ निगाह दौड़ाई तो मालूम हुप्रा कि सूर्य भगवान का रथ अस्ताचल को प्राप्त कर चुका है परन्तु अभी अन्धकार को मुंह दिखाने की हिम्मत नही पडती, वह केवल दूर ही से ताक झाक कर रहा है । हरदेई को जब देखना चाहा तो निगाहो की दौड धूप ने उसका कुछ भी पता न लगा, नव वे लाचार होकर उठ बैठे और उसे इधर उधर ढूढने लगे, परन्तु बहुत परिश्रम करने पर भी उसका पता न लगा । भाखिर वे पुन उसी चबूतरे पर बैठ कर तरह तरह की बातें नोचने लगे। "हरदेई कहा चली गई । इस चाग में जहा तक सम्भव या अच्छी तरह खोज चुका मगर उसका कुछ भी पता न लगा । तब वह गई कहा? इस वाग के बाहर हो जाना तो उसके लिए विल्कुल ही असम्भव है, तो मया उसे किसी तरह की मदद मिल गई ? अगर मदद भी मिली होती या कोई .
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