पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/२८४

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४१ तीसरा हिस्सा धीरे धीरे चल कर वे तीनो औरतें भो मन्दिर की दीवार के पास प्रा पहुची और एक पत्थर को चट्टान पर बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगी- इन्दु । ( कला से ) वहिन, अभी तक समझ में नहीं पाया कि हम लोग किस तरह इस तिलिस्म के अन्दर प्राकर फस गई। 4110 । मेरो बुद्धि भी किसी बात पर नही जमती और न ख्याल ही को भागे वढने का मौका मिलता है। अगर कोई दुश्मन भी हमारी घाटी में मा पहुचा होता तो समझते कि यह सब उसी की कार्रवाई है, मगर... विमला । भला यह कैसे कह सकते है कि कोई दुश्मन वहा नही आया। अगर नही पाया तो यह मुसीवत किसके साथ पाई ? हाँ यह जरूर कहेंगे कि प्रगट मे सिवाय प्रभाकरसिंह और कोई प्राया हुमा मालूम नही हुआ और न इसी बात का पता लगा कि हमारी लौंडियो में से किसी की नियत खराव हुई या नही । इन्दुः । (लम्बी सास ले कर ) हाय ! इस बात का भी कुछ पता नही लगा कि उन पर (प्रभाकरसिंह पर ) क्या बीती ? एक तो लडाई में जख्मी होकर वे स्वयम् कमजोर हो रहे थे, दूसरे यह नई श्राफत और भी श्रा पहुंची ? ईश्वर हो कुशल करे ।। विमला । हाँ वहिन ? मुझे भी जीजाजी के विषय में बडी चिन्ता लगी हुई है परन्तु साथ ही इसके मेरे दिल में इस बात का भी बड़ा ही खटका लगा हुआ है कि उन्होंने वदन खोल कर अपने जस्म जो घोर संग्राम में लगे घे हम लोगों को क्यो नही देखने दिये ? इसके अतिरिक्त हम लोगों के भोजन में वहोशी की दवा देने वाला फोन था इस बात को जब मैं विचारती हूं. (चौफ कर) इस चारदीवारी के अन्दर कौन है ? कला० । अरे, तो जीजाजी मालूम पडते है। वात करते करते विमला की निगाह मन्दिर की चारदीवारी के अन्दर जा पडी जहाँ प्रभाकरसिंह खडे थे और नजदीक होने के कारण इन सभी की बातें सुन रहे थे । दीवार को जालीदार मूराख वहुत बढी होने के कारण यह