पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/२९८

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तीसरा हिस्सा 1 अावाज० । अगर तुम्हारे किये हो सकेगा तो जरूर ऐसा ही करना । सर० । हा हा, जरूर ही ऐसा करूंगी। मेरा दिल उसी समय खटका था जब प्रभाकरसिंह ने कुछ व्यंग के साथ बातें को थी। मै उस समय उसका मतलब कुछ नहीं समझ सकी थी मगर अव मालूम हो गया कि कोई महापुरुप हम लोगों को बदनाम करके अपना काम निकाला चाहते है। जवाव० । इस तरह की बातें तुम प्रभाकरसिह को समझाना, मुझ पर इसका कुछ भी असर नहीं हो सकता, यदि मै तुम्हारा नातेदार न होता तो मुझे इतना कहने की कुछ जरूरत भी न थी, में तुम लोगो का मुह भी न देखता और अब भी ऐसा ही करूगा । मैं नहीं चाहता कि अपना हाय औरतो के सून मे नापाक करूं तथापि एक दफे प्रभाकरसिह के सामने इन वातो को सावित जम्र कस्गा जिसमे कोई यह न कहे कि जमना सर- स्वती और इन्दुमति पर किसी ने व्यर्थ ही कतंक लगाया । प्रच्छा अब मै जाता है फिर मिलू गा। सरस्वती । अच्छा अच्छा देसा जायगा, इन चालबाजियो से काम नही चलेगा। बस इसके बाद किसी तरह की गावाज न पाई, अस्तु कुछ देर तक और कान लगा पर ध्यान देने के बाद प्रभाकरसिंह पुन उस दीवार के अन्दर जाने का उद्योग करने लगे। इस रवाल से कि देखें यह दीवार कहा पर खतम हुई है वे दीवार के साथ ही साय पूरय तरफ रवाना हुए। दीवार बहुत दूर तक नहीं गई थी, केवल चार या पांच विगहे को बाद मुट गई थी, पन्तु प्रभाकरनिह भी घूम कर दूसरी तरफ चल पदं । बीस पचीस कदम आगे जाने के बाद उन्हे एका ग्युना देर्वाजा मना । प्रभाकरसिंह उस दजेि के अन्दर चले गये और दूर से जमना सरस्वती पोर इन्दुमति को एक पेड़ के नीचे बैठे देखा जो नीचे की तरफ सिर झुकाये हुए ग्रामो से गरम गरम वासू गिरा रही थी। क्रोर म भरे हुए प्रभाकरमिह उन तीनो के पास चले गये और सरस्वती की तरफ देख के दाने -"यह कौन यादमी