पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/३२३

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भूतनाथ अपार हो गई, जब पति ने ही मुझे त्याग दिया तब इस पापमय शरीर को लेकर इस दुनिया में रहना और चारो तरफ मारे मारे फिरना मुझे पसन्द नही अस्तु मैं इस शरीर को इसी जगह त्याग कर बखेडा ते करूगी।" जमना० । नही वहिन, तुम इस काम में जल्दी मत करो और इस तरह यकायक हताश मत हो जानो। मालूम होता है कि किसी दुश्मन ने उन्हें भडका दिया है और इसी से उनका मिजाज बदल गया है मगर यह वात बहुत दिनो तक कायम नही रह सकती, धर्म हमारी सहायता करेगा और एक न एक दिन असल भेद खुल जाने से वे अपने किये पर पश्चात्ताप करेंगे। इन्दुमति० । मगर वहिन, मैं कब तक उस दिन का इन्तजार करूगी ? जमना० । इन बातो का फैसला बहुत जल्द हो जायगा, हम लोगो को ज्यादे इन्तजार न करना पडेगा। इन्दुमति० । खैर अगर तुम्हारी बात मान भी ली जाय तो उस दुश्मन के हाथ से बचे रहने की क्या तर्कीव हो सकती है जोवार वार हम लोगो का पीछा करके भी शान्त नही होता, अगर नारायण की मदद न होती तो वह इन्दुमति इसके प्रागे कुछ कहने ही को थी कि उसने सामने से अपने मददगार नारायण को प्राते हुए देखा । इस समय नारायण की पीठ पर एक गठरी थी जिनमें कोई आदमी वधा हुआ था। नारायाण तेजी के साथ कदम वढाता हुआ जमना सरस्वती और इन्दु- मति के पास आया और गठरी जमीन पर रख कर तथा अपना परिचय देकर इन्दुमति मे बोला, “इन्दु, मुझे मालूम हो गया कि तेरे दुश्मनो ने तुझे बल्कि जमना और सरस्वती को भी व्यर्थ वदनाम किया है और तुम लोगो की तरफ से प्रभाकरसिंह का दिल फेर दिया है । यह काम खास भूतनाथ के एक ऐयार का है जिसने हरदेई को सूरत वन कर तुमको और प्रभाकरसिंह को वोना दिया । आज कल मे मै जरूर उसको खवर लूगा । इस समय मै तुम्हारे जिस दुश्मन से लड रहा था वह वास्तव मे भूतनाथ था ?" इन्दुः । ( ताज्जुब से वात काट कर ) क्या वह भूतनाव है ? मगर इस तिलिस्म के अन्दर वह क्योकर या पहेचा?