. ६० भूतनाथ बैठा किसी विपय पर विचार कर रहा है । उसके सामने कई तरह के कागज और चीठियों के लिफाफे फैले हुए हैं जिनमें से एक चीठी को यह वार वार उठा कर गौर से देखता और फिर जमीन पर रख कर कुछ सोचता है । दारोगा के बगल में सट कर एक कमसिन खूबसूरत और हसीन औरत बैठी हुई है। उसके कपडे और गहने के ढग तथा भाव से मालूम होता है कि वह वावाजी (दारोगा) को स्त्री या गृहस्थ औरत नहीं है बल्कि कोई वेश्या है जो कि तिलिस्मी दारोगा अर्थात् बाबाजी से कोई घना सवध रखती है । एक चीठी पर कुछ देर तक विचार करने के बाद दारोगा ने उस औरत की तरफ देखा और कहा - "बोबी मनोरमा, वास्तव में यह चीठी गदाधरसिंह के हाथ की लिखी हुई है । इस चीठी को देकर तुमने मुझ पर वडा अहसान किया, अव वह जरूर मेरे कब्जे में आ जायेगा। मैं उसे अपना साथी बनाने के लिए बहुत दिनो से उद्योग कर रहा हूँ पर वह मेरे कब्जे में नही पाता था, मगर अव उसे भागने की जगह न रहेगी। मनोरमा० । (मुस्कुराती हुई) ठीक है, मगर मैं अफसोस के साथ कहती कि इस त्रीठी को जो गदाधरसिंह के हाथ की लिखी हुई है बल्कि उसकी लिखी हुई और चीठियो को भी जो यापके सामने पडो हुई है और जिन्हें मैं जवरदस्ती नागर से ले आई हू आज ही वापस ले जाऊगो, क्योकि नागर से तुरत ही वापस कर देने का वादा करके ये चीठिया भापको दिखाने के लिए मैं लाई थी। दारोगा० । (कुछ उदास चेहरा वना के) ऐसा करने से तो मेरा काम नही चलेगा। मनोरमा० । चाहे जो कुछ हो, आपने भी तो तुरत वापस कर देने का वादा किया था। दारोगा । ठीक है, मगर अब जो में देखता है तो इन चोठियों की वदौलत मेरा बहुत काम निकलता दिखाई देता है। मनो० । ता क्या प्राप चाहते हैं कि मैं नागर से झूठी वनू और वह मुझे दगाबाज कहके दुश्मनो की निगाह से देखे जिसे मै अपनी वहिन से भी
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