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पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/३३५

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भूतनाथ का एक अपूर्व आनन्द मिल रहा है । बातें करती हुई जमना की निगाह उस तरफ जा पडी जिघर से झरने का पानी बडी सफाई के साथ बहता हुआ श्रा रहा था और ऐसा मालूम होता था कि तिलिस्मी कारीगर ने इस पानी के ऊपर भी चाद की कलई चढा दी है। किसी प्रादमो का आहट पाकर जमना चौकी और वोली, “वहिन, देखो तो सही वह क्या है ? मै तो समझती है कि कोई आदमी है।" इन्दु० । मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है । सरस्वती० । यद्यपि किसी आदमो का यहा तक आ पहुचना असभव हैं, परन्तु मै यह भी नही कह सकती कि यह आदमी नहीं कोई जानवर है। जमना० । (जोर देकर) वेशक श्रादमी है ।। इन्दु० । देखो इसी तरफ चला आ रहा है, कुछ और इधर आ जाने से अव साक मालूम होता है कि आदमी है, जरा रुक कर दवकता और श्राहट लेता हुआ पा रहा है इससे मालूम होता है कि हमारा दोस्त नही वल्कि दुश्मन है । देशो यह मेरो दाहिनो ग्राख फडकी, इश्वर ही कुशल करे। (चीक कर) वहिन वह देखो उसके पोछे और भो एक आदमी मालूम पड़ता है। मरस्वती० । (मच्छी तरह देख कर) हा ठीक तो है, दूसरा आदमी भी माफ मालूम पटता है. श्राश्चय नही कि कोई और भी दिख ई दे । वहिन, मुझे भी खुटका होता है और दिल गवाही देता है कि ये पाने वाले हमारे दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन है । जमना० । वेशक ऐसा ही है, अब इनके मुकाबले के लिए तैयार हो जाना चाहिए इन्दु० । इनसे मुकवना करना मुनामित्र होगा या भाग कर अपने को छिपा लेना? लो अब तो वे लोग बहुत नजदीक आ गये और मालूम होता है कि उन्होने हम लोगो को देख भी लिया । जमना० । वेशक उन लोगो ने हमे देख लिया, चलो हमलोग भागकर मकान के अन्दर चने और दर्वाजावन्द कर लें मुकावला करना ठीक न होगा।