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पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/४५

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भूतनाथ
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जगह उन्होने ( इन्द्रदेव ने ) मुझे गुप्त भाव से बताया कि भूतनाथ ने मेरे पति के साथ कैसा सलूक किया । मालूम होते ही मेरे तनोबदन में आग सी लग गई और मैंने उसी समय उनके सामने प्रतिज्ञा की कि 'भूतनाथ से इसका बदला जरूर लूंगी।' (एक लम्बी साँस लेकर) गुस्से में प्रतिज्ञा तो कर गई मगर जब विचारा तो कहा मैं और कहा भूतनाथ ! पहाड़ और राई का मुकाबला कैसा ? ऐसा खयाल आते ही मै इन्द्रदेव के पैरो पर गिर पड़ी और बोली कि 'मेरी इस प्रतिज्ञा की लाज आपको है बिना आपकी मदद के मेरी प्रतिज्ञा पूरी नही हो सकती और वैसी अवस्था में मुझे आपके सामने ही प्राण देना पडे़गा' इत्यादि ।

इन्द्रदेव को भी इस अनुचित घटना का बड़ा दुख था परन्तु मेरी उस अवस्था ने उन्हें और भी दुखित कर दिया तथा मेरी प्रार्थना पर उन्होने ध्यान ही नही दिया बल्कि मेरी प्रतिज्ञा पूरी करना उन्होने आवश्यक और धर्म समझ लिया। बस फिर क्या था। मेरे मन को भई, जैसा कि मै चाहती थी उससे बढ़ कर उन्होने मुझे मदद दी और सच तो यह है कि उनसे बढ़ कर इस दुनिया में मुझे कोई मदद दे ही नहीं सकता। खैर मैं खुलासा हाल फिर कभी सुनाऊंगी, मुख्तसर यह है कि उन्होंने हर प्रकार की मदद करने का बन्दोबस्त करके हम दोनो को समझाया कि अब किस तरह की जिन्दगी हम दोनो को अख्तियार करनी चाहिए।

सब से पहिले इन्द्रदेवजी ने यही बताया कि 'प्रगट मे तुम दोनो बहिनो को इस दुनिया से उठ जाना चाहिए अर्थात् तुम्हारे रिश्तेदारो के साथ ही साथ और सभी को भी यह मालूम हो जाना चाहिए कि जमना और सर- स्वती मर गई ।' यह बात मुझे पसन्द आई। आखिर इन्द्रदेवजी ने हम दोनो के सूरत बदल कर रहने और अपना काम करने का बन्दोबस्त करके न मालूम हमारे रिश्तेदारो को कैसे क्या समझा दिया और क्योकर विश्वास दिला दिया कि सब कोई हमारी तरफ से निश्चिन्त हो गए। उनकी इच्छा- नुसार बहुत ही गुप्त भाव से हम दोनों यहाँ कला और विमला के नाम सें