भूतनाथ द चाहिए और न किसी की मित्रता पर किसी को घमण्ड करना चाहिए। क्या दयाराम को स्वप्न में भी इस बात का गुमान रहा होगा कि मैं अपने दोस्त गदाधरसिंह के हाय से मारा जाऊंगा, दोस्त ही नहो वल्कि गुलाम और ऐयार गदाधरसिंह !" मूर्ति की यह बात सुन कर भूतनाथ का कलेजा दहल उठा और गुलाव- सिंह तथा प्रभाकरसिंह आश्चर्य के साथ भूतनाथ का मुंह देखने लगे। मूर्ति ने फिर इस तरह कहना शुरू किया "अफसोस । अपनी चूक का प्रायश्चित करना उचित था न कि ढग वदल कर पुन पाप में लिप्त होना । भूतनाथ, क्या तुम समझते हो कि इस दुष्कर्म का अच्छा फल पायोगे ? क्या तुम समझते हो कि गुप्त रह कर पृथ्वी का आनन्द लूटोगे ? क्या तुम समझते हो कि वेइमान दारोगा से मिल कर स्वर्ग को सम्पत्ति लूटोगे और मायारानी की बदौलत कोई अनमोल पदार्थ बन जायोगे ? नही नही कदापि नहो , गदावरसिंह | तुम्हारी किस्मत में दुख भोगना बदा है अस्तु भोगो, जो जी में आवे करो, मगर ऐ गुलावसिंह, तुम ऐसे दुष्ट का साथ क्यो दिया हते हो जो विना कमन्द लगाए श्रास्मान पर चढ जाने का हौसला करता है, खुद गिरेगा और तुम्हें भी गिरावेगा भौर ऐ प्रभाकरसिंह ? तुम अब अपनी प्रखिों के प्रांतू पोछ डालो, इन्दु- मति की बिल्कुल भूल जायो, अपने कातर हृदय को ढाढस देकर वीरता का स्मरण करो और दुनिया मे कुछ नाम पैदा करो । यदि तुम धर्म पथ पर दृढता के साथ चलोगे तो मै वरावर तुम्हारी सहायता करता रहू गा । मै तुम्हें सलाह देता है कि तुम अवश्य उस पथ का अवलम्बन करो जो मै तुमसे उस दिन कह चुका हू । खवरदार, अपने भेद के मालिक आप बने रहो और किसी दूसरे को उसमें हिस्सेदार मत बनायो । क्या तुम्हें मुझको और कुछ पूछना है " इतना कह कर मूर्ति चुप हो गई और प्रभाकरसिंह ने उसमे यह सवाल किया
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