पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/१०

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भूषण-ग्रंथावली की

भूमिका


"एक लहैं तप पुंजन के फल ज्यों तुलसी अरु सूर गोसाई। . एकन को बहु संपति केशव भूपन. ज्यों बलबीर बड़ाई ॥ एकन को जस ही सो प्रयोजन है रसखानि रहीम कि नाई। ' दास कवित्तन की चरचा गुनवंतन को सुखदै सब ठाई" ॥ 'वास्तव में सन् १७३४ के कवि दासजी का उपर्युक्त सवैया भूषणजी के विषय में जो कुछ कहता है, वह विलकुल ठीक है। जैसी कुछ संपत्ति और वड़ाई कविता से भूषणजी को प्राप्त हुई, वैसी प्रायः औरों को नहीं मिली। __ हमारे भाषा साहित्य में वीर, रौद्र, तथा भयानक रसों का सर्वोच्च पद है, क्योंकि उत्कृष्ट हिंदी कविता इन्हीं रसों का अवलंब ले पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई है। सब से प्रथम जिस प्रकृष्ट ग्रंथ के निर्मित होने का हाल हम लोगों को ज्ञात है, वह चंद कृत पृथ्वी- राजरासो है और वह विशेषतया इन्हीं रसों के वर्णनों का भांडार है । जज्जल, शाङ्गधर आदि ने भी ऐसे ही विषयों का मान किया। मलिक मुहम्मद जायसी ने भी पद्मावत में यत्र तत्र उपर्युक्त ग्रंथों की भाँति इन रसों का समावेश किया है। तदनंतर "चौथे पन