पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२२३

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[ १३२ ] अवतार थिर राजै कृपन' हरि गदा ॥ सिवराज भूपन अटल रहै तौलौं जौलौं त्रिदस भुवन सब, गंग औ नरमदा । साहि तनै साहसिक भौसिला सुरज बंस दासरथि राज तोलौं सरजा थिर सदा ।। ३८१ ॥ पुनः-दोहा पुहुमि पानि रवि ससि पवन जब लो रहै अकास । सिव सरजा तब लो जियो भूपन सुजस प्रकास ।। ३८२ ।। इति श्री कवि भूपण विरचिते शिवराज भृपणे अलंकार वर्णनं समाप्तम् । शुभमस्तु श्री शिवा बावनी छप्पय कौन करै वस वस्तु कौन यहि लोक बड़ो अति ? । को साहस को सिंधु कौन रज लाज धरे मति ? || को चकवा को १ कृपाण; तलवार । २ जैसा कि भूमिका में लिखा गया है, यह कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं, वरन् भूषण जी के ५२ छंदों का एक संग्रह मात्र है। इसी हेतु प्रचलित प्रतियों का क्रम छोड़ कर हमने अपना नया क्रम स्थिर किया है; क्योंकि हम उक्त प्रचलित क्रम को बहुत ही अनुपयुक्त समझते हैं । . ३ यह छंद "स्फुट कविता' से लेकर उपयुक्त जान हमने यहाँ रख दिया है।