पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२४८

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[ १५७ ] से गयंदन के जाल को । लागति लपटि कंठ वैरिन के नागिनि सी रुद्रहि रिझावै दै दै मुंडन के माल को । लाल छितिपाल छत्रसाल महावाहु वली कहाँ लौं बखान करौं तेरी करवाल को । प्रतिभट' कटक कटीले केते काटि काटि कालिका सी किलकि कलेऊ देति काल को ॥३॥ भुज भुजगेस की है संगिनी भुजंगिनी सी खेदि खेदि खाती दीह दारुन दलन के । वखतर पाखरिन बीच धसि जाति मीन पैरि पार जात परवाह ज्यों जलन के ॥ रैया राय चंपति को छत्रसाल महाराज भूषन सकत को बखानि यों वलन के । पच्छी पर-छीने ऐसे परे पर छीने बीर तेरी बरछी ने वर छीने हैं खलन के ॥४॥ १ पूर्णोपमा अलंकार । २ एक महाशय का निराधार कथन है कि छन्द नम्बर २ व ३ गोरेलाल कृत हैं, किन्तु वे महाराजा छत्रसाल पन्ना नरेश के कवि व माफ़ीदार थे न कि बूंदीनरेश के। ३ चंपतिराय छत्रसाल बुंदेला के पूज्य पिता थे। ये महाशय बुंदेलों में बड़े ही प्रतापी हो गए हैं । पहले महाराज चंपति शाहजहाँ से मित्रता रखते थे और उनकी ओर से दारा के साथ काबुल में लड़ने भी गए थे। वहाँ इन महाराज ने इतनी वीरता दिखाई और अफगानों को इतना शीघ्र परास्त कर दिया कि दारा को इनकी वीरता से देप उत्पन्न हुआ। इसी द्वेष के कारण इनसे दारा की शत्रुता हो गई। तब ये महाराज औरंगजेब की ओर होगए और इन्होंने धौलपुर के युद्ध में हरौल दल के नेता होकर दारा को परास्त करके औरंगजेब को राज्य दिलाने में पूरा योग दिया ( यथा “पति राय जगत जस छायो-- है हरौल दारा विचलाओ" लालकृत छत्रप्रकाश ।) ४ पंखकटे। ५पर अर्थात् शत्रु खंडित हो गए। ६ बल ।।