[ १५६ ] छत्रसालसिंह अरि के चलाये पाचँ वीररस च्वै रहो। हय चले हाथी चले संग छोड़ि साथी चले ऐसी चलाचली मैं अचल हाड़ा हैरहो ॥ ११ ॥२ दारा साहि नौरँग जुरे हैं दोऊ दिली दल एकै गये भाजि एकै गये धि चाल में । बाजी कर कोऊ दगाबाजी करि राखी जेहिं कैसेहू प्रकार प्रान वत्रत न काल में ।। हाथी ते उतरि हाड़ा जूझो लोह लंगर' दै एती लाज कामें जेती लाज छत्रसाल मैं । तन तरवारिन में मन परमेसुर में प्रान स्वामि-कारज मैं माथो हरमाल मैं ।। २ ।। छत्रसाल बुंदेला महेवानरेश विषयक निकसत न्यान ते मयूखैः प्रलै भानु कैसी फारें तम तोम १ पूर्णाप्ना, पदार्थावृत्त दीपक, परिसंख्या और भूषणानुसार पर्याय अलंकार। २ एक महाशय का कथन है कि उन्हें यह छद मपण कृत नहीं समझ पड़ता। ३ कोई माग गए बोर कोई लेना के संचालन में फंस गए, अर्थात् इस प्रकार चेना चलाई गई कि उनको लेना ऐसे स्थान पर जा पो कि वहाँ से वह शत्रु के भलो मांति लड़ नहीं सकती थी। चल्ने ते कुचल गए। ४ कोई ऐसे थे कि जिस तनय शितो प्रकार नहीं करते थे, तो उन्होंने दगा- पानी करले नपने हाथ वानी रस्तो, (बाद प्रान चार ) । यह भी हो सकता है कि हाथ में छोड़ा पकड़ कर नई दनकर बच गए । ५व हायो टड़ाई से भागने लगते हैं, तद उनके पैरों में लंगड़ (मोने जोर) चाल देते हैं कि वे भाग न । ६रिने।
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