पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२५५

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[ १६४ ] व्यों सिन्धु परकुम्भज विसे सिये। हर व्यों अनंग पर गरुड़ भुजंग पर कौरव के अंग पर पारथ ज्यों पेखिये । बाज ज्यों विहंग पर सिंह ज्यों मतंग पर न्लेच्छ चतुरंग पर चिन्तामणि देखिये ॥६॥ .. पौरच नरेस अमरेस जू के अनिरुद्ध तेरे जस सुने ते सोहात सौ सीतले । चन्दन की चांदनी सी चादरें सी चहूँ ओर पथ पर फैलती हैं परम पुनीत लें ॥ भृखन वखानी कवि मुखन प्रमानी सोतो बानी → के बाहन हरख हंस हीतलें। सरद के धन की घटान सी वुमंडती हैं मेर ते उमंडती हैं मंडती महीत ।। ७ ॥ उठि गयो आलम सौ रुजुक सिपाहिन को, उठि गो बधैया सवै वीरता के बाने को । भूपन भनत उठि गयो है धरा सों धर्म, उठि गो सिंगार सवै राजा राब राने को। उठि गो सुसील कवि, उठि गो जसीलो डील, फैलो मध्य देस मैं समूह तुरकाने को। फूटे भाल भिच्छुक के जूझे भगवन्त राय, अरराय टूटो कुल खंभ हिन्दुवाने को ।। ८॥ १ अगस्त्यमुनि जिन्होंने समुद्र पी लिया था। वे घड़े से उत्पन्न कहे गये हैं । वास्तव में उन्होंने जलसेना प्रस्तुत कर के मरद समुद्र के डाकुओं को पराजित करके तत्कालीन भारतीय नमुद्री व्यापार कंटक रहित कर दिया था, निस्से उन का मारो यश हुआ। २ चिन्तामणि को चिमणाजी भी कहते थे। आप एक मारी महाराष्ट्र महापुरुष थे जिनके विमव का समय सन १७२३ के निकट है । ३ त छन्द में मालोपमा की वह र है। ४ तेरा यश नुन कर कान शीतल और शोमिन होते हैं। ५ कहीं कहीं भगवन्त के स्थान पर नमवन्त भी लिखा हुआ है।