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पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२६४

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[ १७३ ] . मेचक' कवच साजि वाहन वयारि वाजि गाढ़े दल गाजि रहे दीरघ बदन के। भूपन भनत समसेर सोई दामिनी है हेतु नर कामिनी के मान के कदन के ॥ पैदरि वलाका धुरवान के पताका गहे घेरियतु चहूँ ओर सूते ही सदन के । ना करु निरादर पिया सों मिल सादर ये आये वीर वादर बहादर मदन के ॥२५॥ सुभ सौधे भरी सुखमा सुखरी मुख ऊपर आय रही अलकै । कवि भूषन अंग नवीन विराजत मोतिन-माल हिए झलकै ।। उन दोउन की मनसा मनसी नित होत नई ललना ललकै । भरि भाजन बाहिर जात मनौ मुसुकानि किधौ छवि की छलकै ।। २६ ॥ ____ "नैन जुग नैनन सों प्रथमैं लड़े हैं धाय, अधर कपोल तेऊ टरे नाहिँ टरे हैं। अड़ि-अड़ि पिलि-पिलि लड़े हैं उरोज बीर देखो लगे सीसन५ पै घाव ये घनेरे हैं ॥ पिय को चखायो स्वाद कैसो रति संगर को, भए अंग अंगनि ते केते मुठभेरे हैं । पाछे परे वारन को बाँधि कहै आलिन सों, भूपन सुभट ये ही पाछे परे मेरे हैं ॥२७॥ १ काला। २ बगुला । ३ जब वादल बड़े जोर से उठता है, तब उसमें दूर से जो लंबे लंने खड़े दूसरे प्रकार के पतले धूम्र वर्ण वादल.दौड़ते हैं, उन्हें धुरवा कहते हैं। ४ सम अमेद रूपक, उत्तमा दूती की मानवती नायिका प्रति शिक्षा। ५ सुरति संग्राम का वर्णन है । कुचों के शिरोमाग पर नख-क्षत का प्रयोजन है। रतिसमर में वालों के पीछे पड़ने का भाव अव तक शैख या आलम कवि का पहिला समझा जाता था, किंतु जान पड़ता है कि वास्तव में यह भाव भूपण का था । देवजी ने भी इस भाव पर एक छंद कहा है। - - -