[ ६५ ] - प्राकृतवत् भापा और ब्रजभापा के अतिरिक्त भूपण ने कहीं कहीं बुंदेलखंडी तथा खड़ी बोली का भी प्रयोग किया है। प्राकृतवत् भापा के उदाहरणार्थ शिभू० छंद नं० १४७ और खड़ी बोली के उदाहरणार्थ नं० १६१ तथा २०९ देखिए। __ भूपणजी ने अपनी कविता में यत्र तत्र फारसी के असाधारण शब्द रक्खे हैं, यथा-जावता करन हारे व तुजुक (शि० भू० नं० ३८), दरियाव (शि० भू० नं० १०८), गाजी, जशन, तुजुक व इलाम (शि० भू० नं० १९८), मुहीम (शि० भू० नं० १८०), बेइलाज (शि० भू० नं० २७६), गुस्लखाना, सिलहरखाना, हरमखाना, शुतुरखाना, करंजखाना व खिलवतखाना (शि० भू० नं०३६१) इत्यादि। इससे विदित होता है कि भूपणजी फारसी भी जानते थे; परंतु अच्छी तरह नहीं, क्योंकि उपर्युक्त उदाहरणों में इन्होंने जाबता करन हारे, इलाम तथा वेइलाज का प्रयोग वेमहाविरे किया है। उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त निम्नलिखित छन्दों में फारसी के असाधारण शब्द आए हैं । इनमें कई स्थानों पर शब्दों का अशुद्ध प्रयोग है:-शिवराज-भूषण छंद नंवर ३४; १०३, ११४, १५९, २०९, २४२, २५८, २८३, २९९, ३१५, ३६०, शिवाबावनी छंद नंबर २, ६, १०, १४, १७, २०, २१,२२, २३, २९, ३०, ३३, ३४,४०,४१, छत्रसाल-दशक, छंद नंवर १० । भूषणजी ने कहीं कहीं असाधारण एवं विकृत रूप के शब्द भी लिखे हैं; यथा-छिया (१०), कुरुख (३४), कहाव (५१), जोब (५२, १४२, १९८), धरवी ( १५५ बुंदेलखंडी
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