पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/९०

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. [ ८१ ] झगड़ों के हटा देने से कोई दोप नहीं। फारसी में स्वाद, से, सीन, जो, ज्वाद, जाल, जे, अलिक, ऐन आदि के व्यवहार में जो कठिनाइयाँ पड़ती हैं, वे सब पर विदित हैं। भाषा में ऐसी बातों के स्थिर रखने की कोई आवश्यकता नहीं मालूम होती । हमें 'कार्य, मर्म, लङ्क, मञ्च, कण्ठ, अन्त, कवि" इत्यादि को हिंदी ( देवनागरी) में कार्य या कारज, मर्म या मरम, लंक, मंच, कंठ, अंत, कवि," लिखने में कोई विशेप हानि नहीं प्रतीत होती। भाषा की लिखावट सुगम होनी चाहिए। यदि कोई मनुष्य बिना भाष्य पर्यंत पढ़े देवनागरी लिपि तथा हिंदी भी न लिख सके तो वह सर्वव्यापिनी कैसे हो सकती है ? ___ हमने इस संस्करण में अपनी टिप्पणियाँ दे दो हैं । कदाचित् वे हमसे भी कम हिंदी-परिचित महाशयों के काम आवें और हमारा साल डेढ़ साल का श्रम सुफल हो जाय । हर्ष का विषय है कि केवल २० वर्ष के अन्दर हमारे इस ग्रन्थ को चतुर्थ संस्करण का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भूषण महाराज की कविता ऐसे ही आदर के योग्य है भी । अब यह पंचम संस्करण पाठकों के सामने उपस्थित किया जाता है। ४-४-१९०७- श्यामबिहारी मिश्र ३०-६-२६. शुकदेवबिहारी मिश्र २८-१०-३८