पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/८९

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[ ८० ] . प्रति में शुद्ध नहीं मिले । ऐसी दशा में विवश होकर हमें वे छंद अपनी ओर से शुद्ध करने पड़े हैं। स्वर्गीय कविवर गोविंद गिल्ला भाईजी के प्रति हम कहाँ तक कृतज्ञता प्रकाश करें कि जिन महाशय ने हम लोगों से भेंट न होने पर भी अपनी अमूल्य हस्तलिखित प्रति कृपा करके हमारे पास भेज दी और कई महीनों तक उसे हमारे पास रहने दिया। पंडित युगलकिशोरजी हमारे निकटस्थ भतीजे ही थे अतः उनके धन्यवाद के विपय में हमें मौनावलंबन ही उचित है। सहृदय पाठकों को ग्रन्थावलोकन से विदित हो गया होगा कि इसमें शब्दों के लिखने में उनको शुद्ध संस्कृत के स्वरूप में न लिख कर परिवर्तित हुए हिंदी रूप में लिखा गया है । यथा- स्त्रम (श्रम), सकति (शक्ति); भूपन (भूपण ): दुग्ग (दुर्ग); छिति (क्षिति) इत्यादि। इसके विपय में हमें केवल यही वक्तव्य है कि भाषा में जो रूप अच्छा समझा जाता है और जो रूप भूपणजी एवं अन्य कविगण पसंद करते हैं, वहीं लिखा गया है। भाषा के कविगण केवल श्रुतिकटु बचाने एवं श्रुतिमाधुर्य लाने के लिये ऐसा किया करते हैं और इसमें कोई दूपण भी नहीं। इस प्रकार कविगण प्रायः निन्नलिखित वर्ण अपने काव्य में न आने देने का प्रयत्न करते हैं ट वर्ग, व, श, ड, ऋ, क्ष, युक्त वर्ण, आधी रेफ इत्यादि। हमारे विचार में तो भाषा में इन संस्कृत व्याकरण संबंधी