पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/९८

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विराजै। वारि पताल सी माची मही अमरावति की छवि ऊपर छाजै ॥ १५ ॥ हरिगीतिका छंद मनिमय महल सिवराज के इमि रायगढ़े मैं राजहीं। लखि जच्छ किन्नर असुर सुर गंधर्व हौंसनि साजहीं ।। उत्तंग मरकत मंदिरन मधि बहु मृदंग जु बाजहीं। धन-समै मानहु घुमरि करि धन धनपटले गलगार्जहीं ॥१६॥ मुकतान की झालरिन मिलि मनि-माल छज्जा छाजहीं। संध्या समै मानहुँ नखत गन लाल अंबर राजहीं॥ जहँ तहाँ ऊरध उठे हीरा किरन धन समुदाय हैं। मानो गगन तंबू तन्यो ताके सपेत तनाय हैं ॥१७॥ १३सका लक्षण यों हैं "जहँ पाँच चौकल बहुरि पट कल अंत यक गुरु आनिए । बर विरति नव मुनि भानु पर रचि कला सो रवि ठानिए " इसमें २८ कला होती हैं और अंत का अक्षर गुरु होता है। सोलहवीं कला पर पहली यति और जैसा कि सभी छंदों में होता है, अंत में दूसरी यति पड़ती है। २ छ० नं० १४ देखिए। ३ नीलम । ४ समय पर अर्थात् ठोक समय अथवा वर्षा काल में । ५ तह, पर्त । ६ गलगले से अर्थात् पोर से । ग्राम्य भाषा में "गलगंजी" का अर्थ प्रसन्नतापूर्वक बोलने का लिया जाता है; सो भी यहाँ पर ठोक उतरता हैं।