पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१०

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महाकवि सूरदासजी

हिन्दुओं के स्वातन्त्र्य के साथ ही साथ वीर-गाथाओं की परम्परा भी काल के अँधेरे में जा छिपी। उस हीनदशा के बीच वे अपने परोक्रम के गीत किस मुँह से गाते और किन कानों से सुनाते? जनता पर गहरी उदासी छा गई थी। राम और रहीम को एक बतानेवाली बानी मुरझाए मन को हरा न कर सकी; क्योंकि उसके भीतर उस कट्टर एकेश्वरवाद का सुर मिला हुआ था, जिसका ध्वंसकारी स्वरूप लोग नित्य अपनी आँखों देख रहे थे। सर्वस्व गँवाकर भी हिंदू जाति अपनी स्वतन्त्र सत्ताः बनाए रखने की वासना नहीं छोड़ सकी थी। इससे उसने अपनी सभ्यता, अपने चिर-संचित संस्कार आदि की रक्षा के लिए राम और कृष्ण का आश्रय लिया; और उनकी भक्ति का स्रोत देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया। जिस प्रकार वंग देश में कृष्ण चैतन्य ने उसी प्रकार उत्तर भारत में वल्लभाचार्यजी ने परम भाव की उस आनन्दविधायिनी कला का दर्शन कराकर जिसे प्रेम कहते हैं जीवन में सरसता का संचार किया। दिव्य प्रेम-संगीत की धारा में इस लोक का सुखद पक्ष निखर आया और जमती हुई उदासी या खिन्नता बह गई।

जयदेव की देववाणी स्निग्ध पीयूष-धारा, जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोक-भाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल-कंठ से प्रकट हुई और आगे चलकर व्रज के करील कुंजोँ के बीच