पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१९
भ्रमरगीत-सार
 

लीन्हे फिरत जोग जुबतिन को बड़े सयाने दोऊ॥
तब कत मोहन रास खिलाई जो पै ज्ञान हुतोऊ?
अब हमरे जिय बैठो यह पद 'होनी होउ सो होऊ'॥
मिटि गयो मान परेखो[१] ऊधो हिरदय हतो सो होऊ।
सूरदास प्रभु गोकुलनायक चित-चिंता अब खोऊ॥३९॥


तुम जो कहत सँदेसो आनि।

कहा करौं वा नँदनंदन सों होत नहीं हितहानि॥
जोग-जुगुति किहि काज हमारे जदपि महा सुखखानि?
सने सनेह स्यामसुन्दर के हिलि मिलि कै मन मानि॥
सोहत लोह परसि पारस ज्यों सुबरन बारह बानि[२]
पुनि वह चोप कहाँ चुम्बक ज्यों लटपटाय लपटानि॥
रूपरहित नीरासा निरगुन निगमहु परत न जानि।
सूरदास कौन बिधि तासों अब कीजै पहिचानि? ॥४०॥


राग धनाश्री
हम तौ कान्ह केलि की भूखी।

कैसे निरगुन सुनहिं तिहारो बिरहिनि बिरह-बिदूखी[३]?
कहिए कहा यहौ नहिं जानत काहि जोग है जोग।
पा लागों तुमहीं सों, वा पुर बसत बावरे लोग॥
अंजन, अभरन, चीर, चारु बरु नेकु आप तन कीजै।
दंड, कमंडल, भस्म, अधारी जौ जुवतिन को दीजै॥
सूर देखि दृढ़ता गोपिन की ऊधो यह ब्रत पायो।
कहै 'कृपानिधि हो कृपाल हो! प्रेमै पढ़न पठायो'॥४१॥


  1. मान परेखो=आसरा भरोसा।
  2. बारह बानि=द्वादश वर्ण अर्थात् सूर्य की तरह चमकनेवाला, खरा।
  3. बिदूखी=दुखी।