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भ्रमरगीत-सार
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त्रिकुटी[१] सँग भ्रूभंग, तराटक[२] नैन नैन लगि लागे।
हँसन प्रकास, सुमुख कुंडल मिलि चंद्र सूर अनुरागे॥
मुरली अधर श्रवन धुनि सो सुनि अनहद शब्द प्रमाने।
बरसत रस रुचि-बचन-सँग, सुख-पद-आनन्द-समाने॥
मंत्र दियो मनजात[३] भजन लगि, ज्ञान ध्यान हरि ही को।
सूर, कहौं गुरु कौन करै, अलि, कौन सुनै मत फीको?॥७८॥


राग सारंग
कहिबे जीय न कछु सक राखो।

लावा मेलि दए[४] हैं तुमको बकत रहौं दिन आखों[५]
जाकी बात कहौ तुम हमसों सो धौं कहौ को काँधी[६]
तेरो कहो सो पवन भूस भयो, वहो जात ज्यों आँधी॥
कत श्रम करत, सुनत को ह्याँ है, होत जो बन को रोयो।
सूर इते पै समुझत नाहीं, निपट दई को खोयो[७]॥७९॥


राग धनाश्री
अब नीके कै समुझि परी।

जिन लगि हुती बहुत उर आसा सोऊ बात निबरी[८]
वै सुफलकसुत, ये, सखि! ऊधो मिली एक परिपाटी।
उन तो वह कीन्ही तब हमसों, ये रतन छँड़ाइ गहावत माटी॥


  1. त्रिकुटी=दोनों भौंहों के बीच का स्थान, त्रिकूटचक्र।
  2. तराटक=त्राटक। योग के छः कर्मों में से एक। अनिमेष रूप से
    किसी बिंदु पर दृष्टि गड़ाने का अभ्यास।
  3. मनजात=कामदेव।
  4. लावा मेल देना=जादू वा टोटका करके पागल बना देना।
  5. आखों=सारा (सं॰ अक्षय)।
  6. काँधी=अंगीकार की, मानी।
  7. दई को खोयो=गया बीता (स्त्रियों की गाली)।
  8. निबरी=छूटी, खतम हुई, जाती रही।