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भ्रमरगीत-सार
उपमा एक न नैन गही।
कबिजन कहत कहत चलि आए सुधि करि करि काहू न कही॥
कहे चकोर, मुख-बिधु बिनु जीवन; भँवर न, तहँ उड़ि जात।
हरिमुख-कमलकोस बिछुरे तें ठाले[१] क्यों ठहरात?
खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहिं सतरात।
पंख पसारि न उड़त, मंद ह्वै समर[२]-समीप बिकात॥
आए बधन ब्याध ह्वै ऊधो, जौ मृग, क्यों न पलाय?
देखत भागि बसै घन बन में जहँ कोउ संग न धाय॥
ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग न छाँड़त[३]॥९७॥
हरिमुख निरखि निमेख बिसारे।
ता दिन तें मनो भए दिगंबर इन नैनन के तारे॥
घूँघट-पट छांड़े बीथिन महँ अहनिसि अटत[४] उघारे।
सहज समाधि रूपरुचि इकटक टरत न टक तें टारे॥
सूर, सुमति समुझति, जिय जानति, ऊधो! बचन तिहारे।
करैं कहा ये कह्यो न मानत लोचन हठी हमारे॥९८॥
दूर करहु बीना कर धरिबो।
मोहे मृग नाही रथ हाँक्यो, नाहिंन होत चंद को ढरिबो[५]॥
- ↑ ठाले=ठाले में, अभाव में।
- ↑ समर=स्मर, कामदेव।
- ↑ कुछ थोड़ी सी मीनता रह गई है कि जल का संग नहीं छोड़ते, जलभरे रहते हैं। नेत्रों की उपमा मछली से भी दी जाती है।
- ↑ अटत=घूमते हैं।
- ↑ मोहे...ढरिबो=बीना की तान से मोहित होकर चंद्रमा के रथ के मृग चलते नहीं इससे न चन्द्रास्त होता है न रात बीतती है। जायसी भी पद्मावत में यह उक्ति इस प्रकार लाए हैं––गहै बीन मकु रैन बिहाई। इत्यादि।