पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
४४
 


राग सारंग
ऊधो! तुम अपनो जतन करौ।

हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी‌।
साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुमसों मानी हारि।
याही तें तुम्हैं नँदनंदनजू यहाँ पठाए टारि॥
मथुरा बेगि गहौ इन पाँयन, उपज्यौ है तन रोग।
सूर सुबैद बेगि किन ढूँढ़ौ भए अर्द्धजल[१] जोग॥१०५॥


राग सोरठ
ऊधो! जाके माथे भोग

कुबजा को पटरानी कीन्हों, हमहिं देत वैराग॥
तलफत फिरत सकल ब्रजबनिता चेरी चपरि[२] [३]*सोहाग।
बन्यो बनायो संग सखी री! वै रे! हंस वै काग॥
लौंडी के घर डौंड़ी बाजी स्याम राग अनुराग।
हाँसी, कमलनयन-संग खेलति बारहमासी फाग॥
जोग की बेलि लगावन आए काटि प्रेम को बाग।
सूरदास प्रभु ऊख छाँड़ि कै चतुर चिचोरत आग[४]॥१०६॥


  1. अर्द्धजल-जोग हुए=मरने के निकट हुए। (शव को दाह के पूर्व अर्द्धजल देते हैं)।
  2. चपरि=चुपड़कर, संयुक्त करके।
  3. इसका अर्थ 'एकबारगी' होता है। तुलसी ने इसका कई स्थानों पर प्रयोग किया है।
  4. आग=आक, मदार।