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भ्रमरगीत-सार
 


राग सारंग
ऊधो! अब यह समुझ भई।

नँदनंदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याय दई[१]
कुंतल, कुटिल, भँवर, भरि भाँवरि मालति भुरै लई।
तजत न गहरु[२] कियो कपटी जब जानी निरस गई॥
आनन-इंदुबरन-सँमुख तजि करखे तें न नई।
निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अंतहि हेम[३] हई॥
तन घनस्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
सूर विवेकहीन चातक-मुख बूँदौ तौ न सई[४]॥१०७॥


राग धनाश्री
ऊधो! हम अति निपट अनाथ।

जैसे मधु तोरे की माखी त्यों हम बिनु ब्रजनाथ॥
अधर-अमृत की पीर मुई, हम बालदसा तें जोरी।
सो तौ बधिक सुफलकसुत लै गयो अनायास ही तोरी॥
जब लगि पलक पानि मीड़ति रही तब लगि गए हरि दूरी।
कै निरोध निबरे तिहि अवसर दै पग रथ की धूरी॥
सब दिन करी कृपन की संगति, कबहुँ न कीन्हों भोग।
सूर बिधाता रचि राख्यो है, कुबजा के मुख-जोग॥१०८॥


राग सोरठ
ऊधो! ब्रज की दसा बिचारौ।

ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोगकथा बिस्तारौ॥


  1. उपमा न्याय दई=उचित उपमाएँ दीं, अर्थात् अंगों ने उपमानों के अनुरूप ही आचरण किया।
  2. गहरु=देर।
  3. हेम हई=पाले से मारा या पाला मार गई। हेम=हिम, पाला। चन्द्रमा को हिमकर कहते हैं।
  4. सई=गई।