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भ्रमरगीत-सार
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जेहि कारन पठए नँदनंदन सो सोचहु मन माहीं।
केतिक बीच बिरह परमारथ जानत हौ किधौं नाहीं॥
तुम निज[१] दास जो सखा स्याम के संतत निकट रहत हौ।
जल बूड़त अवलम्ब फेन को फिरि फिरि कहा गहत हौ॥
वै अति ललित मनोहर आनन कैसे मनहिं बिसारौं।
जोग जुक्ति औ मुक्ति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं॥
जेहि उर बसे स्यामसुंदर घन क्यों निर्गुन कहि आवै।
सूरस्याम सोइ भजन बहावै जाहि दूसरो भावै॥१०९॥


राग सारंग
ऊधो! यह हित लागै काहे?

निसिदिन नयन तपत दरसन को तुम जो कहत हिय-माहे॥
नींद न परति चहूं दिसि चितवति बिरह-अनल के दाहै।
उर तेँ निकसि करत क्यों न सीतल जो पै कान्ह यहाँ है॥
पा लागों ऐसेहि रहन दे अवधि-आस-जल-थाहै[२]
जनि बोरहि निर्गुन-समुद्र में, फिरि न पायहौ चाहे[३]
जाको मन जाही तेँ राच्यो तासों बनै निबाहे।
सूर कहा लै करै पपीहा एते सर सरिता हैं?॥११०॥


राग सारंग
ऊधो! ब्रज में पैठ करी।

यह निर्गुन, निर्मूल गाठरी अब किन करहु खरी॥
नफा जानिकै ह्याँ लै आए सबै बस्तु अकरी[४]
यह सौदा तुम ह्वाँ लै बेंचौ जहाँ बड़ी नगरी॥


  1. निज-ख़ास।
  2. थाहै=थाह में।
  3. चाहे=चाहने पर हमें फिर न पाओगे॥
  4. अकरी=महँगी।