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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१३२

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भ्रमरगीत-सार
 


राग गौरी
ऊधो! कमलनयन बिनु रहिए।

इक हरि हमैं अनाथ करि छाँड़ी दुजे बिरह किमि सहिए?
ज्यों ऊजर खेरे[] की मूरति को पूजै, को मानै?
ऐसी हम गोपाल बिनु उधो! कठिन बिथा को जानै?
तन मलीन, मन कमलनयन सों मिलिबे की धरि आस।
सूरदास स्वामी बिन देखे लोचन मरत पियास॥११७॥


राग सारंग
ऊधो! कौन आहि अधिकारी?

लै न जाहु यह जोग आपनो कत तुम होत दुखारी?
यह तो वेद उपनिषद मत है महापुरुष ब्रतधारी।
हम अहीरि अबला ब्रजबासिनि नाहिंन परत सँभारी॥
को है सुनत, कहत हौ कासों, कौन कथा अनुसारी?
सूर स्याम-सँग जात भयो मन अहि केंचुलि सी डारी॥११८॥


राग जैतश्री
ऊधो! जो तुम हमहिं सुनायो।

सो हम निपट कठिनई करिकै या मन कोँ समुझायो॥
जुगुति जतन करि हमहुँ ताहि गहि सुपथ[] पंथ लौँ लायो।
भटकि फिर्‌यो बोहित के खग ज्योँ, पुनि फिरि हरि पै आयो॥
हमको सबै अहित लागति है तुम अति हितहि बतायो।
सर-सरिता-जल होम किये तें कहा अगिनि सचु[] पायो?
अब वैसो उपाय उपदेसौं जिहि जिय जात जियायो।
एक बार जौ मिलहिं सूर प्रभु कीजै अपनो भायो॥११९॥


  1. खेरी=गाँव।
  2. सुपथ=अच्छा मार्ग।
  3. सचु=मुख, संतोष।