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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१३४

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भ्रमरगीत-सार
 

सांच कहौ तुमको अपनी सौं[] बूझति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसुकाने?॥१२२॥


राग धनाश्री
ऊधो! स्यामसखा तुम सांचे।

कै करि लियो स्वांग बीचहि तें, वैसेहि लागत कांचे।
जैसी कही हमहिं आवत ही औरनि कही पछिताते।
अपनो पति तजि और बतावत महिमानी कछु खाते[]
तुरत गौन कीजै मधुबन को यहां कहां यह ल्याए?
सूर सुनत गोपिन की बानी उद्धव सीस नवाए॥१२३॥


राग केदारो
ऊधोजू! देखे हौ ब्रज जात।

जाय कहियो स्याम सों या विरह को उत्पात॥
नयनन कछु नहिं सूझई, कछु श्रवन सुनत न बात।
स्याम बिन आंसुवन बूड़त दुसह धुनि भइ बात॥
आइए तो आइए, जिय बहुरि सरीर समात।
सूर के प्रभु बहुरि मिलिहौ पाछे हू पछितात॥१२४॥


राग नट
ऊधो! बेगि मधुबन जाहु।

जोग लेहु संभारि अपनो बेंचिए जहँ लाहु[]
हम बिरहिनी नारि हरि बिनु कौन करै निबाहु?
तहां दीजै मूर पूजै[], नफा कछु तुम खाहु॥


  1. सौं=कसम, सौगंध।
  2. महिमानी खाते=सत्कार पाते अर्थात् खूब कोसे जाते।
  3. लाहु=लाभ।
  4. मूर पूजै=मूल धन निकल आए।