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भ्रमरगीत-सार
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मधुकर! मन तो एकै आहि।
सो तो लै हार संग सिधारे जोग सिखावत काहि?
रे सठ, कुटिल-बचन, रसलंपट! अबलन तन धौं चाहि[१]।
अब काहे को देत लोन हौ बिरहअनल तन दाहि॥
परमारथ उपचार करत हौ, बिरहव्यथा नहिं जाहि।
जाको राजदोष कफ ब्यापै दही खवावत ताहि॥
सुंदरस्याम-सलोनी-मूरति पूरि रही हिय माहिं।
सूर ताहि तजि निर्गुन-सिंधुहि कौन सकै अवगाहि?॥१४३॥
मधुकर! छाँड़ु अटपटी बातें।
बास रस लै अनत बैठे पुहुप को तजि कानि॥
बाटिका बहु बिपिन जाके एक जौ कुम्हलानि।
फूल फूले सघन कानन कौन तिनकी हानि?
कामपावक जरति छाती लोन लाए आनि।
जोग-पाती हाथ दीन्हीं बिप चढ़ायो सानि॥