पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
५८
 


राग धनाश्री
मधुकर! मन तो एकै आहि।

सो तो लै हार संग सिधारे जोग सिखावत काहि?
रे सठ, कुटिल-बचन, रसलंपट! अबलन तन धौं चाहि[१]
अब काहे को देत लोन हौ बिरहअनल तन दाहि॥
परमारथ उपचार करत हौ, बिरहव्यथा नहिं जाहि।
जाको राजदोष कफ ब्यापै दही खवावत ताहि॥
सुंदरस्याम-सलोनी-मूरति पूरि रही हिय माहिं।
सूर ताहि तजि निर्गुन-सिंधुहि कौन सकै अवगाहि?॥१४३॥


राग सारंग
मधुकर! छाँड़ु अटपटी बातें।

फिरि फिरि बार बार सोइ सिखवत हम दुख पावति जातें॥
अनुदिन देति असीस प्रांत उठि, अरु सुख सोवत न्हातें।
तुम निसिदिन उर-अंतर सोचत ब्रजजुबतिन को घातें॥
पुनि पुनि तुम्हैं कहत क्यों आवै, कछु जाने यहि नाते[२]
सूरदास जो रंगी स्यामरंग फिरि न चढ़त अब राते[३]॥१४४॥


मधुप! रावरी पहिचानि।

बास रस लै अनत बैठे पुहुप को तजि कानि॥
बाटिका बहु बिपिन जाके एक जौ कुम्हलानि।
फूल फूले सघन कानन कौन तिनकी हानि?
कामपावक जरति छाती लोन लाए आनि।
जोग-पाती हाथ दीन्हीं बिप चढ़ायो सानि॥


  1. चाहि=तू देख।
  2. यहि नाते=इसी संबंध से, इसी कारण।
  3. राते=लाल।