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भ्रमरगीत-सार
 

सीस तें मनि हरी जिनके कौन तिनमें बानि[१]
सूर के प्रभु निरखि हिरदय ब्रज तज्यो यह जानि॥१४५॥


मधुकर! स्याम हमारे चोर।

मन हरि लियो माधुरी मूरति चितै नयन की कोर॥
पकर्‌यो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीति के जोर।
गए छंड़ाय छोरि सब बंधन दै गए हँसनि अंकोर[२]
सोवत तें हम उचकि परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।
सूर स्याम मुसकनि मेरो सर्वस लै गए नंदकिसोर॥१४६॥


मधुकर! समुझि कहौ मुख बात।

हौ मद पिए मत्त, नहिं सूझत, काहे को इतरात?
बीच जो परै[३] सत्य सो भाखै, बोलै सत्य स्वरूप।
मुख देखत को न्याव न कीजै, कहा रंक कह भूप॥
कछु कहत कछुऐ मुख निकसत, परनिंदक व्यभिचारी।
ब्रजजुवतिन को जोग सिखावत कीरति आनि पसारी॥
हम जान्यो सो भँवर रसभोगी जोग-जुगुति कहँ पाई?
परम गुरू सिर मूँडि बापुरे करमुख[४] छार लगाई॥
यहै अनीति बिधाता कीन्हीं तौऊ समुझत नाहीं।
जो कोउ परहित कूप खनावै परै सो कूपहि माहीं॥
सूर सो वे प्रभु अंतर्यामी कासों कहौं पुकारी?
तब अक्रूर अबै इन ऊधो दुहुँ मिलि छाती जारी॥१४७॥


  1. बानि=वर्ण, आभा, कांति।
  2. अंकोर=भेंट।
  3. बीच जो परै=जो बीच में पड़ता है अर्थात् मध्यस्थ या दूत होता है।
  4. करमुख=काले मुँहवाला, करमुँहा, भौंरे के काले मुँह के ऊपर पीला दाग होता है।